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टिप्पणियाँ १. मोक्ष नवाँ पदार्थ है (दो० १) :
पदार्थों की संख्या नौ मानी हो अथवा सात, सब ने मोक्ष पदार्थ को अन्त में रखा है। इस तरह मोक्ष पदार्थ नवाँ अथवा सातवाँ पदार्थ ठहरता है। “ऐसी संज्ञा मत करो कि मोक्ष नहीं है पर ऐसी संज्ञा करो कि मोक्ष है।"-यह उपदेश मोक्ष के स्वतंत्र अस्तित्व को घोषित करता है। द्विपदावतारों में तथा अन्यत्र अनेक स्थलों पर मोक्ष को बंध का प्रतिपक्षी तत्त्व कहा गया है। जैसे कारावास शब्द स्वयं ही स्वतंत्रता के अस्तित्व का सूचक होता है वैसे ही जब बन्ध सद्भाव पदार्थ है तो उसका प्रतिपक्षी पदार्थ मोक्ष भी सद्भाव पदार्थ है, यह स्वयं सिद्ध है। बन्ध कर्म-संश्लेष है और मोक्ष कर्म का कृत्स्न-क्षय । मोक्ष की परिभाषा देते हुए आचार्य पूज्यपाद लिखते हैं-"कृत्स्नकर्मवियोगलक्षणो मोक्षः"-मोक्ष का लक्षण संपूर्ण कर्म-वियोग है।
स्वामीजी लिखते हैं सर्व कर्मों से मुक्ति मोक्ष है। उसे पहचानने के लिए तीन दृष्टान्त हैं :
१. घानी आदि के उपाय से तेल खलरहित होता है, वैसे ही तप-संयम के द्वारा जीव का कर्म-रहित होना मोक्ष है।
२. मथनी आदि के उपाय से घृत छाछ रहित होता है, वैसे ही तप-संयम के द्वारा जीव का कर्म-रहित होना मोक्ष है।
३. अग्नि आदि के उपाय से धातु और मिट्टी अलग होते हैं, वैसे ही तप-संयम के द्वारा जीव का कर्म-रहित होना मोक्ष है।
कर्मों के सम्पूर्ण क्षय का क्रम आगम में इस प्रकार मिलता है -
"प्रेम, द्वेष और मिथ्यादर्शन के विजय से जीव ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना में तत्पर होता है। फिर आठ प्रकार के कर्मों का ग्रन्थि-भेद आरंभ होता है। उसमें
१. सुयगडं २.५.१५ २. ठाणाङ्ग २.५७ ३. तत्त्वा० १.४ सर्वार्थसिद्धि ४. तेराद्वार : दृष्टान्त द्वार