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बंध पदार्थ : टिप्पणी १२
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जैसे कोई तालाब पानी से भरा हो, उसी तरह जीव के प्रदेश कर्म स्कंधों से व्याप्त-परिपूर्ण रहते हैं। जीव के असंख्यात प्रदेशों में से प्रत्येक प्रदेश इसी तरह कर्म-दलों से भरा होता है। जीव अपने प्रत्येक प्रदेश द्वारा कर्म स्कंधों को ग्रहण करता है। जीव के प्रत्येक प्रदेश द्वारा अनन्तानन्त कर्म स्कंधों का ग्रहण होता है। आगम में कहा
"हे भगवन् ! क्या जीव और पुद्गल अन्योन्य-एक दूसरे में बद्ध, एक दूसरे में स्पृष्ट, एक दूसरे में अवगाढ़, एक दूसरे में स्नेह-प्रतिबद्ध हैं और एक दूसरे में घट-समुदाय होकर रहते हैं।"
"हाँ, हे गौतम !"
"हे भगवन् ! ऐसा किस हेतु से कहते हैं ?" _ “हे गौतम ! जैसे एक हद हो जल से पूर्ण, जल से किनारे तक भरा हुआ, जल से छाया हुआ, जल से ऊपर उठा हुआ और भरे हुए घड़े की तरह स्थित । अब यदि कोई पुरुष उस हद में एक महा सौ आस्रव-द्वार वाली, सौ छिद्रवाली नाव छोड़े तो हे गौतम ! वह नाव उन आस्रव-द्वारों-छिद्रों से भरती-भराती जल से पूर्ण, किनारे तक भरी हुई, बढ़ते हुए जल से ढकी हुई होकर भरे हुए घड़े की तरह होगी या नहीं ?"
"होगी हे भगवन"
"उसी हेतु से गौतम ! मैं कहता हूँ कि जीव और पुद्गल बद्ध, स्पृष्ट अवगाढ़ और स्नेह-प्रतिबद्ध हैं और परस्पर घट-समुदाय होकर रहते हैं'।" ___ आत्म-प्रदेश और कर्म-पुद्गलों का यह सम्बन्ध ही प्रदेश बंध है।
प्रदेश बंध के सम्बन्ध में श्री देवानन्द सूरि ने निम्न प्रकाश डाला है। “प्रदेश बंध को कर्म-वर्गणा के दल-संचय रूप समझना चाहिए। इस संसार-पारावार में भ्रमण करता हुआ जीव अपने असंख्यात प्रदेशों द्वारा, अभव्यों से अनन्तगुण प्रदेश-दल से बने और सर्व जीवों से अनन्तगुण रसच्छेद कर युक्त, स्व प्रदेश में ही रहे हुए, अभव्यों से अनन्त गुण परन्तु सिद्धों की संख्या के अनन्तवें भाग जितने, कर्म-वर्गणा के स्कंधों को प्रतिसमय ग्रहणं करता है। ग्रहण कर उनमें से थोड़े दलिक आयु कर्म में, उससे विशेषाधिक और परस्पर तुल्य दलिक नाम और गोत्र कर्म में, उससे विशेषाधिक और परस्पर तुल्य दलिक ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म में, उससे विशेषाधिक
१. भगवती १.६