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बंध पदार्थ : टिप्पणी ११
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प्रकृति-संक्रम की तरह बन्धकालीन रस में भी बाद में अन्तर हो सकता है। तीव्र रस मन्द और मन्द रस तीव्र हो सकता है।
एक बार गौतम ने पूछा'-"भगवन् ! किए हुए पाप कर्मों का फल भोगे बिना उनसे मुक्ति नहीं होती, क्या यह सच है ?" भगवान ने उत्तर दिया-"गौतम ! यह सच है। नैरयिक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव-सर्व जीव किए हुए पाप कर्मों का फल भोगे बिना उनसे मुक्त नहीं होते। गौतम ! मैंने दो प्रकार के कर्म बतलाये हैं-प्रदेश-कर्म और अनुभाग-कर्म । जो प्रदेश-कर्म हैं, वे नियमतः भोगे जाते हैं। जो अनुभाग-कर्म हैं, वे कुछ भोगे जाते हैं, कुछ नहीं भोगे जाते।"
एक बार गौतम ने पूछा-“भगवन् ! अन्ययूथिक कहते हैं-सब जीव एवंभूत-वेदना (जैसा कर्म बांधा है वैसे ही) भोगते हैं, यह कैसे है ?" भगवान बोले-“गौतम ! अन्ययूथिक जो ऐसा कहते हैं, वह मिथ्या कहते हैं। मैं तो ऐसा कहता हूँ-कई जीव एवं भूत वेदना भोगते हैं और कई अन् एवंभूत वेदना भी भोगते हैं जो जीव किए हुए कर्मों के अनुसार ही वेदना भोगते हैं, वे एवंभूत वेदना भोगते हैं और जो जीव किए हुए कर्मों से अन्यथा भी वेदना भोगते हैं, वे अन्-एवंभूत वेदना भोगते हैं।"
आगम में कहा है-“एक कर्म शुभ होता है और उसका विपाक भी शुभ होता है। एक कर्म शुभ होता है और उसका विपाक अशुभ होता है। एक कर्म अशुभ होता है और उसका विपाक शुभ होता है। एक कर्म अशुभ होता है और उसका विपाक भी अशुभ होता
भगवती १.४ हंता गोयमा ! नेरेइयस्स वा तिरिक्खमणुदेवसस्स वा जे कडे पावे कम्मे नत्थि तस्स अवेइत्ता मोक्खो एवं खलु मए गोयमा ! दुविहे कम्मे पन्नत्ते तं जहा-पएसकम्मे य अणुभागकम्मेय य। तत्थ णं जं तं पएसकम्मं तं नियमा वेएइ, तत्थ णं जं तं
अणुभागकम्मं तं अत्थेगइयं वेएइ अत्थेगइयं णो वेएइ २. भगवती १.४ वृत्ति :
प्रदेशाः कर्मपुद्गला जीवप्रदेशेष्वोतप्रोताः तद्रूपं कर्म प्रदेशकर्म। ३. भगवती १.४ वृत्ति :
अनुभागः तेषामेव कर्मप्रदेशार्ना संवेद्यमानताविषयो रसः तद्रूपं कमोऽनुभाग-कम ४. भगवती ५.५ ५. ठाणाङ्ग ४.४ ३१२