Book Title: Nav Padarth
Author(s): Shreechand Rampuriya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 740
________________ बंध पदार्थ : टिप्पणी ७.८ ७१५ बन्ध आस्रव और निर्जरा के बीच की स्थिति है। आस्रव के द्वारा पौद्गलिक कर्म आत्म-प्रदेशों में आते हैं। निर्जरा के द्वारा वे आत्म-प्रदेशों से बाहर निकलते हैं। कर्म-परमाणुओं के आत्म-प्रदेशों में आने और फिर से चले जाने के बीच की दशा को संक्षेप में बंध कहा जाता है। ७. बंध पुद्गल की पर्याय है (दो० ९) : जड़ द्रव्य पुद्गल की वर्गणाएँ हैं उनमें से एक वर्गणा ऐसी है जो कर्मरूप परिणमित हो सकती है। जीव अपने आस-पास के क्षेत्र में से इस कर्मयोग्य पुद्गल वर्गणा के स्कंधों को ग्रहण करता है और उन्हें काषायिक विकार से कर्मरूप में परिणमन करता है। कर्म-भाव से परिणाम पाए हुए .पुद्गलों का जो आत्म-प्रदेशों के साथ सम्बन्ध है, उसी का नाम बंध है। इस तरह यह साफ प्रकट है कि बंध पुद्गल का पर्याय है। ___आत्मा के साथ जिन कर्मों का बंध होता है, वे अनन्त प्रदेशी होते हैं। उनमें चतुःस्पर्शित्व होता है। वे आत्मा की सत्-असत् प्रवृत्ति द्वारा गृहीत होते हैं। बन्ध की अपेक्षा जीव और पुद्गल फूल और गन्ध, तिल और तेल की तरह अभिन्न हैं-एकमेक हैं । लक्षण की अपेक्षा भिन्न हैं- कोई अपने स्वभाव को नहीं छोड़ता। जीव चेतन है और पुद्गल अचेतन, जीव अमूर्त है और पुद्गल मूर्त । मूर्त कर्म का आत्मा में अवस्थान बंध है । कर्म-पुद्गलों की आत्मप्रदेशों में अवस्थान रूप परिणति ही बन्ध है अतः बन्ध पुद्गल-पर्याय है। ८. द्रव्य-बंध भाव-बंध (गा० १-६) : पहले कर्म-वर्गणा के पुद्गलों का आत्म-प्रदेशों में आगमन होता है और फिर बंध । कर्म-पुद्गलों का आगमन आस्रव बिना नहीं होता अतः बंध पदार्थ की उत्पत्ति का मूलाधार आस्रव पदार्थ है। मिथ्यात्वादि हेतुओं के अभाव में कर्म-पुद्गलों का प्रवेश नहीं होता और उनके अभाव में बंध नहीं हो सकता। इसलिए मिथ्यात्व आदि हेतु या आस्रव ही बंधोत्पत्ति के कारण हैं। कर्म आत्म-प्रदेशों के साथ सम्बन्धित होकर उसी समय फल दें, ऐसा कोई नियम नहीं हैं। बंधने के समय से फल देने की अवस्था में आने तक कर्म सत्तारूप में अवस्थित रहते हैं। यह अबाधा काल है। इस अवस्था में बंध द्रव्य-बंध कहलाता है। अबाधा-काल के बाद फल देने की अवस्था में आकर कर्म सुख-दुःख या हर्ष-शोक उत्पन्न करते हैं। १. जैन धर्म और दर्शन पृ० २८.६

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