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बंध पदार्थ : टिप्पणी ५
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६. नाम
शुभ
(१) काय-ऋजुता (२) भाव-ऋजुता (३) भाषा-ऋजुता (४) अविसंवादनयोग (१) काय-अऋजुता (२) भाव-अऋजुता (३) भाषा-अजुऋता (४) विसंवादनयोग
अशुभ
७. गोत्र
उच्च
८. अन्तराय
(१) जाति-अमद (२) कुल-अमद (३) बल-अमद (४) रूप-अमद
(५) तप-अमद (६) श्रुत-अमद (७) लाभ-अमद (८) ऐश्वर्य-अमद नीच- (१) जाति-मद (२) कुल-मद (३) बल-मद (४) रूप-मद (५) तप-मद
(६) श्रुत-मद (७) लाभ-मद (८) ऐश्वर्य-मद (१) ज्ञानान्तराय (२) लाभान्तराय (३) भोगान्तराय (४) उपभोगान्तराय
(५) वीर्यान्तराय मिथ्यादर्शनादि जो पाँच बन्ध-हेतु हैं उनमें से पूर्व हेतु विद्यमान होने पर उत्तर हेतु विद्यमान रहता है; किन्तु उत्तर हेतु हो तो पूर्व हेतु हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है-इसकी भंजना समझनी चाहिए' । प्रत्येक गुणस्थान में पाँचों बन्धहेतु नहीं होते। केवल प्रथम गुणस्थान में ही पाँचों समुदायरूप से रहते हैं। दूसरे, तीसरे और चौथे गुणस्थान में अविरति, प्रमाद, कषाय और योग होते हैं। पाँचवें में देश अविरति, प्रमाद, कषाय और योग होते हैं। छठे गुणस्थान में प्रमाद, कषाय और योग-ये तीन होते हैं। सातवें, आठवें, नवें, दसवें और ग्यारहवें गुणस्थान में कषाय और योग-ये दो ही होते हैं । ग्यारहवें में सत्तारूप से कषाय है पर उदय में नहीं है अर्थात् वहाँ पर भी कषाय प्रत्ययिक बन्ध नहीं है। बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में केवल योग होता है। चौदहवें गुणस्थान में एक भी बन्ध-हेतु नहीं होता। यह अपुनर्बन्धक होता है।
इस सम्बन्ध में श्री जयाचार्य के विचार प्रसंग-वश पहले बताये जा चुके हैं। (पृ० ३८०; पृ० ५२७-५३१)। पाठक उन स्थलों को अवश्य देख लें।
१. आर्हतदर्शन दीपिका-चतुर्थ उल्लास, बन्ध अधिकार पृ० ६७५ २. वही : पृ० ६७६