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बंध पदार्थ : टिप्पणी १०
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कर्म
८. अन्तराय (१) दान-अन्तराय, (२) लाभ-अन्तराय, (३) भोग-अन्तराय,
(४) उपभोग-अन्तराय, (५) वीर्य-अन्तराय'। स्वामीजी ने भिन्न-भिन्न कर्मों की स्थितियाँ इस प्रकार बतलायी हैं : जघन्य स्थिति
उत्कृष्ट स्थिति १. ज्ञानावरणीय अन्तर मुहूर्त ३० कोटाकोटि सागर २. दर्शनावरणीय ३. वेदनीय ४. मोहनीय
दर्शन मोहनीय
चारित्र "
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आयुष्य ६. नाम
___८ मुहूर्त
७. गोत्र
८. अन्तराय
अन्तर"
इस स्थिति-वर्णन का आधार उत्तराध्ययन सूत्र है। प्रज्ञापना सूत्र में आठ कर्म ही नहीं उनकी उत्तर प्रकृत्तियों का भी स्थिति-वर्णन मिलता है।
स्वामीजी ने वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की बतलाई है। यह प्रज्ञापना और उत्तराध्ययन सूत्र के आधार पर है। भगवती में इस कर्म की स्थिति दो समय
१. मूल प्रकृतियाँ, उत्तर प्रकृतियाँ और उनके उपभेदों की व्याख्या अर्थ के लिए देखिए
पृ० ३०३-४४; १५५-५६; १५६-६८। २. उत्त० ३३.१६-२२ ३. प्रज्ञापना २३.२.२१- २६ । कोष्ठक रूप में इसका संकलन 'जैन धर्म और दर्शन' नामक
पुस्तक में प्राप्त है। देखिए पृ० २८३-५८७।