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निर्जरा पदार्थ (ढाल : २) : टिप्पणी १८
जो तपसा करणो म्हारे अल्प छे, घणो चिंतव्यों हुवे नहीं कोय। . जो तपसा करणी म्हारे अति घणी, थोड़ों चिंतव्यों सताव सूं होय ।। जेहवी करणी तेहवा फल लागसी, पिण करणी तो बांझ न कोय।
तो निहांणों करूं किण कारणे, आछों कियां निश्चें आछो होय।। स्वामीजी उपसंहार करते हुए कहते हैं :
जिन मत मांहे पिण इम कह्यो, नीहाणों करे तप खोय।
ते तो नरक तणों हुवे पावणों, वले चिहूं गति मांहे दुखियो होय।। तप की महिमा बताते हुए श्री हेमचन्द्रसूरि ने लिखा है-"जिस प्रकार सदोष स्वर्ण प्रदीप्त अग्नि द्वारा शुद्ध होता है, वैसे ही आत्मा तपाग्नि से विशुद्ध होती है। बाह्य और आभ्यन्तर तपाग्नि के देदीप्यमान होने पर भी यमी दुर्जर कार्मों को तत्क्षण भस्म कर देता है।" उत्तराध्ययन में कहा है-“कोटि भवों के संचित कर्म तप द्वारा जीर्ण होकर झड़ जाते हैं।" उसी आगम में कहा है : “तपरूपी बाण से संयुक्त हो, कर्मरूपी कवच का भेदन करनेवाला मुनि, संग्राम का अन्त ला, संसार से-जन्म-जन्मान्तर से मुक्त हो जाता है।" स्वामीजी कहते हैं उत्कृष्ट भावना से तप करनेवाला तीर्थंकर गोत्र तक का बंध करता है। अधिक क्या तप से अनन्त संसारी जीव क्षणभर में करोड़ों भवों के कर्मों को खपाकर सिद्ध हो जाता है। १८. निर्जरा और निर्जरा की करनी दोनों निरवद्य हैं (गा० ५३-५६) :
इन गाथाओं में स्वामीजी ने निम्न बातों पर प्रकाश डाला है : । १. निर्जरा और निर्जरा की करनी दोनों भिन्न-भिन्न हैं पर दोनों ही निरवद्य हैं। २. निर्जरा मोक्ष का अंश है। ३. नये कर्मों के बंध से निवृत्त हुए बिना संसार-भ्रमण नहीं मिटता।
नवतत्त्वसाहित्यसंग्रह : श्री हेमचन्द्रसूरिप्रणीत सप्ततत्त्वप्रकरण गा० १२६, १३२ : सदोषमपि दीप्तेन, सुवर्ण बहिना यथा। तपोऽग्निना तप्यमानस्तथा जीवो विशुध्यति।। दीप्यमाने तपोवनौ, बाह्ये चाभ्यन्तरेऽपि च। यमी जरति कर्माणि, दुर्जराण्यपि तत्क्षणात् ।। उत्त० ३०.६ : भवकोडीसंचियं कम्मं तवसा निज्जरिज्जइ उत्त० ६.२२ (पृ० पा० टि० में उद्धृत)
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