________________
निर्जरा पदार्थ (ढाल : २) : टिप्पणी १७
६८६
श्री अकलङ्कदेव ने आगे जाकर लिखा है-"किसी को अभिसन्धि-विशेष इच्छा से तप के द्वारा अभ्युदय की भी सहज प्राप्ति होती है।"
पंडित सुखलालजी तत्त्वार्थसूत्र के उक्त सूत्र (६.३) की व्याख्या करते हुए लिखते हैं-"समान्य तौर पर तप अभ्युदय अर्थात् लौकिक सुख की प्राप्ति का साधन माना जाता है, ऐसा होने पर भी यह जानना चाहिए कि वह निःश्रेयस् अर्थात् आध्यात्मिक सुख का भी साधन बनता है; कारण कि तप एक होने पर भी उसके पीछे रही हुई भावना के भेद को लेकर वह सकाम और निष्काम दोनों प्रकार का होता है। सकाम तप अभ्युदय को साधता है, और निष्काम तप निःश्रेयस् को साधता है।"
आगमों में ऐसे स्थल मिलते हैं जहाँ देखा जाता है कि लौकिक कामना से तपस्या करनेवाले का लौकिक अभीष्ट पूरा हुआ है। उदाहरणस्वरूप गर्भवती रानी धारिणी को मन्द-मन्द वर्षा में भ्रमण करने का दोहद उत्पन्न हुआ। उस समय वर्षा-काल नहीं था। अभयकुमार ने आभूषण, माला, विलेपन, शस्त्रादि उतार डाले और पौषधशाला में जा ब्रह्मचर्यपूर्वक पौषध-ग्रहण कर दर्भसंस्तारक बिछा, उसपर स्थित हो तेला ठान दिया और देव को मन में स्मरण करने लगा। तेला सम्पूर्ण होने पर देव का आसन चला। वह अभयकुमार के पास आया । वर्षा-काल न होने पर भी उसने वर्षा उत्पन्न की। इस तरह धारिणी का दोहद पूरा हुआ। ऐसी घटनाओं से तप लौकिक सुख की प्राप्ति का साधन है-ऐसी मान्यता चल पड़े तो आश्चर्य नहीं पर उससे सर्व व्यापक सिद्धान्त के रूप में ऐसा प्रतिपादन युक्तियुक्त नहीं कि “सकाम तप अभ्युदय को साधता है, और निष्काम तप निःश्रेयस् को साधता है।" तथ्य यह है कि निष्काम तप (आत्मशुद्धि की कामना के अतिरिक्त अन्य किसी कामना से नहीं किया हुआ तप) कर्मों का क्षय करता है अतः वह निःश्रेयस् का कारण है। शुभ योग की प्रवृत्ति के कारण कर्म-क्षय के साथ-साथ पुण्य का भी बन्ध होता है जो सांसारिक अभ्युदय का हेतु होता है। जब तप के साथ ऐहिक कामना जोड़ दी जाती है तब वह तप सकाम होता है। तप के साथ जुड़ी हुई ऐहिक कामना
१. देखिए पा० टि० २ का अन्तिम अंश २. तत्त्वार्थसूत्र गुजराती (तृ० आ०) पृ० ३४६ ३. ज्ञाताधर्मकथाङ्ग १.१६