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१. बंध पदार्थ (दो० १ ) :
स्वामीजी ने बंध को आठवाँ पदार्थ कहा है और उसका विवेचन भी ठीक मोक्ष के पूर्व किया है। उसका आधार आगमिक कथन है'। दिगम्बर आचार्य भी उसका यह स्थान स्वीकार करते हैं'। उत्तराध्ययन में नव पदार्थों के नाम निर्देश में उसका स्थान तृतीय है अर्थात् इसका उल्लेख जीव और अजीव पदार्थ के बाद ही आ जाता है। सात पदार्थों का उल्लेख करते हुए वाचक उमास्वाति ने इसे चतुर्थ स्थान पर रखा है अर्थात् इसे आस्रव के बाद और संवर, निर्जरा और मोक्ष के पहले रखा है। हेमचन्द्रसूरि ने सात पदार्थों में इसे छठा पदार्थ बतलाया है ।
आगमों में अन्य पदार्थों की तरह बंध को भी सद्भाव पदार्थ, तथ्यभाव आदि कहा गया है। श्रद्धा के बोलों में कहा है- "ऐसी संज्ञा मत करो कि बंध और मोक्ष नहीं हैं पर ऐसी संज्ञा करो कि बंध और मोक्ष हैं ।" द्विपदावतारों में बंध और मोक्ष को प्रतिद्वन्द्वी तत्त्वों में गिना गया है । इस तरह यह स्पष्ट है कि बंध को जैन दर्शन में एक स्वतंत्र तत्त्व के रूप में प्रतिपादित किया गया है।
जीव और पुद्गल क्रमशः चेतन और जड़ होने से परस्पर विरोधी स्वभाववाले पदार्थ हैं फिर भी दोनों परस्पर बद्ध हैं और इसी सम्बन्ध से यह संसार है। लोक के एक
१.
ठाणाङ्ग ६,६६५ (पृ० २२ पा० टि० १ में उद्धृत)
२. पुञ्चास्तिाकय २.१०८ ( पृ० १५० पा० टि० ५ (क) में उद्धृत)
३.
उत्त० २८.१४ ( पृ० २५ पर उद्धृत)
४. तत्त्वा० १.४
५.
टिप्पणियाँ
देखिए पृ० १५१ पा० टि० ३
(क) ठाणाङ्ग ६.६६५
(ख) उत्त० २८.१४
७. सुयगडं २.५.१५ :
८.
णत्थि बंधे व मोक्खे वा, णेवं सन्नं निवेस ए ।
अत्थि बन्धे व मोक्खे वा, एवं सन्नं निवेस ए ।।
ठाणाङ्ग २.५६ :
जदत्थिणं लोगे तं सव्वं दुपओआरं तं जहा
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बन्धे चेव मोक्खे चेव