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नव पदार्थ
५. बंध-हेतु (दो० ५) :
आगमों में बन्ध-हेतु दो कहे गए हैं-(१) राग और (२) द्वेष' | -"रागो य दोसो वि य कम्मंबीयं" -राग और द्वेष कर्म के बीज हैं। जो भी पाप कर्म हैं, वे राग और द्वेष से अर्जित होते हैं-"जहा उ पावगं कम्मं, रागदोस समज्जियं ।" इन आगम वाक्यों में भी दो ही बन्ध-हेतुओं का उल्लेख है।
टीकाकार ने राग से माया और लोभ-इन दो को ग्रहण किया है और द्वेष से क्रोध और मान को । आगम में अन्यत्र कहा है कि जीव चार स्थानों से आठों कर्म-प्रकृतियों का चयन करता है। भूत में किया है और भविष्यत् में करेगा। ये चार स्थान क्रोध, गान भाया और लोभ हैं।
एक बार गौतम ने पूछा-"भगवन् ! जीव कर्म-प्रकृतियों का बंध कैसे करते हैं ?" भगवान ने उत्तर दिया-'गौतम ! जीव दो स्थानों से कर्मों का बंध करते हैं-एक राग और दूसरे द्वेष से। राग दो प्रकार का है-माया और लोभ । द्वेष भी दो प्रकार का है-क्रोध और मान।"
क्रोध, मान, माया और लोभ का संग्राहक शब्द कषाय है। इस तरह उपर्युक्त विवेचन से एक कषाय ही बन्ध-हेतु होता है।
१. (क) ठाणाङ्ग २.४.६६
(ख) समवायाङ्ग सम० २ २. उत्त० ३२.७
उत्त० ३०.१ ४. ठाणाङ्ग २.४.६६ की टीका :
रागो मायालोभकषायलक्षणः द्वेषस्तु क्रोधमानकषायलक्षणः यदाहमायालोभकषायश्चेत्येतद् रागसंज्ञि द्वन्द्वम्। क्रोधो मानश्च पुनद्वेष इति समासनिर्दिष्टः ।। ठाणाङ्ग २५० :
जीवाणं चउहिं ठाणेहिं अट्ठ कम्मपगडीओ चिणिंस, तं० कोहेणं माणेणं मायाए लोभेणं 1. प्रामा २३.१.३