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नव पदार्थ
टीका करते हुए श्री अभयदेव ने आस्रव की व्याख्या इस रूप में की है :
आश्रूयते गृह्यते कर्माऽनेन इत्याश्रवः शुभाशुभ कर्मादान हेतुरिति भावः आश्रवस्तु मिथ्यादर्शनादिरूपः परिणामो जीवस्य । स चात्मानं पुद्गलांश्च विरहय्य कोऽन्यः । जिससे कर्मों का ग्रहण हो उसे आस्रव कहते हैं। आस्रव शुभाशुभ कर्मों के आदान का हेतु है। आस्रव मिथ्यादर्शन आदि रूप जीव-परिणाम हैं। वह आत्मा या पुद्गल को छोड़ कर अन्य हो ही क्या सकता है ? स्वामीजी कहते हैं-"जो आस्रव जीव-परिणाम है वह अजीव अथवा रूपी कैसे
होगा ?
टीकाकार के “सचात्मानं पुद्गलांश्च विरहय्य कोऽन्यः, अर्थात् वह आश्रव आत्मा और पुद्गलों को छोड़ कर अन्य क्या है ?" शब्दों को लेकर कहा गया है-"आश्रव, आत्मा और पुद्गल इन दोनों का परिणाम स्वरूप ही है यह टीकाकार का आशय है। इसलिए आस्रव को एकान्त जीव मानना इस टीका के विरुद्ध समझना चाहिए । यद्यपि टीका के इस पूर्वोक्त वाक्य के पहले आस्रव के सम्बन्ध में यह वाक्य आया है कि 'आश्रवस्तु मिथ्यादर्शनादिरूपः परिणामो जीवस्य तथापि इस वाक्य में परिणामो जीवस्य इसमें दो तरह का सन्धि-विच्छेद है-'परिणामः जीवस्य' और 'परिणामः अजीवस्य' इन दोनों ही प्रकार का छेद करके आस्रव को जीव और अजीव दोनों का परिणाम बताना टीकाकार को इष्ट है।
· उक्त मत से टीकाकार ने आस्रव को जीव-अजीव दोनों का परिणाम बताया है। कोई भी पदार्थ जीव अथवा अजीव, इन दो कोटियों को छोड़ कर तीसरी कोटि का नहीं हो सकता। टीकाकार के शब्द-'सचात्मानंपुद्गलांश्च विरहय्य कोऽन्यः' का आशय है आस्रव जीव हो सकता है अथवा अजीव । इन दोनों को छोड़ कर वह और क्या हो सकता है ? वह जीव का परिणाम है अतः अजीव कोटि का नहीं है। 'परिणामो जीवस्य' के द्वारा 'परिणामः अजीवस्य' का भाव भी दिया गया है, यह दलील उपर्युक्त स्पष्टीकरण के बाद नहीं टिकती। अगर आस्रव जीव-अजीव दोनों का ही परिणाम होता. तो 'परिणामो जीवाजीवस्य' ऐसा लिखते।
१. सद्धर्ममण्डनम्-आश्रवाधिकारः बोला २१