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संवर पदार्थ (दाल : १) : टिप्पणी ११-१२
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में उस की सत्ता भी नहीं रहती। औपशमिक चारित्र की स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होती है जब कि क्षायिक चारित्र की उत्कृष्ट स्थिति देशन्यून करोड़ पूर्वो की और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की होती है।
यथाख्यात चारित्र औपशमिक और क्षायिक दोनों प्रकार का होता है। ११. क्षायोपशमिक, औपशमिक और क्षायिक चारित्रों की तुलना
___ (गा० २५-२७) : सामायिक चारित्र, छेदोपस्थापनीय चारित्र, परिहारविशुद्धिक चारित्र और सूक्ष्मसंपराय चारित्र-ये क्षायोपशमिक चारित्र हैं और यथाख्यात चारित्र औपशमिक तथा क्षायिक।
सामायिक चारित्र, छेदोपस्थापनीय चारित्र और परिहारविशुद्धिक चारित्र इच्छाकृत होते हैं। उनमें से प्रथम दो में सर्व सावद्य योगों का त्याग किया जाता है। तीसरे में विशिष्ट तप किया जाता है। सूक्ष्मसंपराय चारित्र और यथाख्यात चारित्र इच्छाकृत नहीं होते, न उनमें सावद्य योगों के त्याग ही करने पड़ते हैं। वे आत्मिक निर्मलता की स्वाभाविक स्थितिस्वरूप हैं। यथाख्यात चारित्र मोहनीयकर्म के उपशम अथवा क्षय से उत्पन्न होता है। सामायिक आदि चार चारित्र मोहनीयकर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न भाव हैं। ये उपशम अथवा क्षायिक भाव नहीं।
सामायिक चारित्र छठे से नवें गुणस्थान में, औपशमिक यथाख्यात चारित्र ग्यारहवें गुणस्थान में और क्षायिक यथाख्यात चारित्र बारहवें, तेरहवें तथा चौदहवें गुणस्थान में होता है। १२. सर्वविरति चारित्र एवं यथाख्यात चारित्र की उत्पत्ति (गा० २८-३२) :
स्वामीजी ने चारित्र को जीव का स्वभाविक गुण कहा है। उसका आधार आगम की निम्न गाथा है :
१. झीणी चर्चा १२.७-८
चारित्र मोह नों उदै कहीजै, पहला सूं ले दशमां लग जाण । चारित्र मोह रो सर्वथा उपशम छै० एक एकादश में गुणठाणा ।। चारित्र मोह तणो क्षायक कहीजै, बारमें तेरमें चवदमें होय। चारित्र मोह तणो क्षयोपशम, पहला सूं ले दशमां लग जोय।।