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नव पदार्थ
(ख) एक स्त्री है। उसका पति कहीं चला गया अथवा मर गया है। वह बाल विधवा है, अथवा पति द्वारा छोड़ दी गई है। वह मातादि से रक्षित है। वह अपने शरीर का संस्कार नहीं करती। उसके नख, केश और कांख के बाल बड़े होते हैं। वह धूप, पुष्प, गन्ध, माल्य और अलंकारों को धारण नहीं करती। वह अस्नान, स्वेद, जल्ल, मल, पंक के कष्टों को सहन करती है। दूध, दही, मक्खन, घी, तेल, गुड़, नमक, मधु, मद्य और मांस का भोजन नहीं करती। वह ब्रह्मचर्य का पालन करती हुई पति की शय्या का उल्लंघन नहीं करती। ऐसी स्त्री के निर्जरा होती है ।
स्वामीजी कहते हैं-" इस प्रकार जो नाना प्रकार के कष्ट किए जाते हैं उनसे भी अल्प मात्रा में कर्मों का क्षय होता है-निर्जरा होती है । पर यह अकाम निर्जरा है क्योंकि I इन कष्टों के करने वाले का लक्ष्य कर्म-क्षय नहीं ।" यहाँ क्रिया शुद्ध होने पर भी लक्ष्य न होने से जो निर्जरा होती है वह अकाम निर्जरा है। जो कर्म-क्षय की दृष्टि से बारह प्रकार के तपों को करता है अथवा परीषहों को सहन करता है उसको सकाम निर्जरा होती है और जो बिना ऐसी अभिलाषा के इन तपों को करता है अथवा परीषहों को सहन करता है उसको अकाम निर्जरा होती है ।
श्री जयाचार्य के सामने एक सिद्धान्त आया- " जो अग्नि, जल आदि में प्रवेश कर मरते हैं वे इस कष्ट से देवता होते हैं ।"
श्रीजयाचार्य ने इसका उत्तर इस प्रकार दिया - "ते तो आगला भव में अशुभ कर्म बांध्या ते उदय आया भोगवे छै । पिण जीव री हिंसा रूप सावद्य कार्य ते निर्जरा री करणी नहीं । एह थी पुन्य पिण बंधे नहीं । इम सावद्य कार्य नां कष्ट थी पुन्य बंधे तो नीलो घास काटतां कष्ट है। संग्राम में मनुष्यां ने खड़गादिक थी मारतां हाथ ठंठ है । कष्ट है। मोटा अणाचार सेवतां, शीत काल में प्रभाते स्नान करतां कष्ट है। तिण रे लेखे एह थी पिण पुन्य बंधे। ते माटे ए सावद्य करणी थी पुन्य बंधे नहीं अने जे जीव हिंसारहित कार्य शीतकाल में शीत खमैं, उष्णकाल में सूर्य नी अतापना लेवै, भूख तृषादिक खमें निर्जरा अर्थे ते सकाम निर्जरा छै । तिणरी केवली आज्ञा देवे । तेहथी पुन्य बंधे। अने बिना मन
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भूख तृषा शीत तावड़ादि खमै । बिना मन ब्रह्मचर्य पाले ते निर्जरा रा परिणाम बिना I तपसादि करे ते पिण अकाम निर्जरा आज्ञा मांहि छै । "
१. भगवती नी जोड़: खंधक अधिकार ८