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निर्जरा पदार्थ (टाल : २) : टिप्पणी १५
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(३) स्तेयानुबंधी' और (४) संरक्षणानुबंधी।
रौद्र ध्यान के चार लक्षण कहे गये हैं : (१) आसन्न दोष (२) बहुल दोष (३) अज्ञान दोष और (8) आमरणान्त दोष ।
३. धर्म ध्यान चार प्रकार का कहा गया है : (१) आज्ञाविचयप (२) अपाय विचः (३) विपाक विचय और (४) संस्थान विचय" ।
धर्म ध्यान के चार लक्षण कहे गये हैं : (१) आज्ञारुचिर (२) निसर्ग रुचि३ (३) उपदेश रुचि और (४) सूत्र रुचि।
धर्म ध्यान के चार अवलंबन कहे गये हैं -(१) वाचना (२) प्रतिपृच्छा (३) परिवर्तना
१. परधन अपहरण की भावना करते रहना स्तेयानुबंधी रौद्र ध्यान है। २. धन आदि वस्तुओं के संरक्षण के लिए क्रूर भावों को पोषित करते रहना संरक्षणा
नुबंधी रौद्र ध्यान है। ३. हिंसा आदि पापों से बचने की चेष्टा का न होना। ४. हिंसा आदि पापों में रात-दिन प्रवृत्ति करते रहना। ५. हिंसा आदि पापों को धर्म मानते रहना। ६. मरने तक पाप का पश्चाताप न होना।
सर्वभूतों के प्रति दया की भावना, पाँचों इन्द्रियों के विषयों के व्युपरम-उपशान्त भाव, बन्ध और मोक्ष, गमन और आगमन के हेतुओं पर विचार, पंच महाव्रतादि ग्रहण. की
भावना-ये सब धर्म ध्यान हैं। ८. प्रवचन की पर्यायलोचना-जिन-आज्ञा के गुणों का चिन्तन। ६. रागद्वेषादि जन्य दोषों की पर्यालोचना। १०. कर्मफल का चिन्तन। ११. जीव, लोक आदि के संस्थान का विचार । १२. जिन-आज्ञा-जिन-प्रवचन में रुचि का होना। १३. स्वाभाविक तत्त्वरुचि। १४. साधु-सन्तों के उपदेश में रुचि। औपपातिक (सम० ३०) में मूल शब्द ‘उवएसरुई' है।
इसके स्थान में भगवती (२५.७) मे 'औगाढरुयि-अवगाढ़ रुचि है और ठाणाङ्ग (४.१
२४७) में 'ओगाढ़रुती' है। इस शब्द का अर्थ है आगम में विस्तृत अवगाहन की रुचि। १५. आगमों में रुचि का होना।