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निर्जरा पदार्थ (ढाल : २) : टिप्पणी १६
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ॐ
शुक्ल ध्यान के चार अवलम्बन कहे गये हैं : (१) क्षान्ति' (२) मुक्ति (३) आर्जव और (४) मार्दव।
शुक्ल ध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ कही गई हैं : (१) अपायानुप्रेक्षा (२) अशुभानुप्रेक्षा (३) अनन्तवृत्तितानुप्रेक्षा" (४) विपरिणामानुप्रेक्षा।
आर्त और रौद्र ध्यान को छोड़ कर सुसमाहित भाव से धर्म और शुक्ल ध्यान के ध्याने को बुद्धों ने ध्यान तप कहा है। १६. व्युत्सर्ग तप (गा० ४१-४५) :
व्युत्सर्ग तप दो प्रकार का कहा गया है : (१) द्रव्य व्युत्सर्ग और (२) भाव व्युसर्ग।
१. द्रव्य व्युत्सर्ग तप चार प्रकार का कहा है : (१) शरीर-व्युत्सर्ग१२ (२) गण१. क्षमा २. निर्लोभता ३. ऋजुता-सरलता
मदूता-निरभिमानता ५. हिंसा आदि आश्रव जन्य अनर्थों का चिन्तन। ६. यह संसार अशुभ है-ऐसा चिन्तन। ७. अनन्तवृत्तिता-संसार की जन्म-मरण की अनन्तता का चिन्तन। ८. वस्तुओं में प्रति समय परिणाम-अवस्थान्तर होता है, उसका चिन्तन। ६. उत्त० ३०.३५ :
अट्ठरुद्दाणि वज्जिता झाएज्जा सुसमाहिए।
धम्मसुक्काई झाणाइं गाणं तं तु बुहावए ।। १०. व्युत्सर्ग अर्थात् त्याग। ११. शारीरिक हलन-चलनादि क्रियाओं के त्याग, साधु-समुदाय के सहवास, वस्त्र, पात्रादि
उपधि तथा आहार के त्याग को द्रव्य व्युत्सर्ग तप कहते हैं। १२. क्रोधादि भाव तथा संसार और कर्म-उत्पत्ति के हेतुओं का त्याग-भाव व्युत्सर्ग तप
कहलाता है। १३. शरीर व्युत्सर्ग तप की परिभाषा निम्न प्रकार मिलती है (उत्त० ३०.३६) :
सयणासणठाणे वा, जे उ भिक्खू न वावरे।
कायस्स विउस्सगो, छट्ठो सो परिकित्तिओ।। -शयन, आसन और स्थान में जो भिक्षु चलानात्मक क्रिया नहीं करता-शरीर को हिलाता-डुलाता नहीं, उसके काय-व्युत्सर्ग नामक छठा आभ्यन्तर तप कहा गया है।