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निर्जरा पदार्थ (टाल : २) : टिप्पणी १४
(४) अनुप्रेक्षा और (५) धर्मकथा'।
स्वाध्याय के भेदों का फल-वर्णन इस प्रकार मिलता है :
(१) वाचना से जीव निर्जरा करता है। श्रुत के अनुवर्तन से वह अनाशातना में वर्तता है। इससे तीर्थ-धर्म का अवलम्बन करता है। जिससे कर्मों की महा निर्जरा और महा पर्यवसानवाला होता है।
(२) प्रतिपृच्छा से जीव, सूत्र और अर्थ दोनों की, विशुद्धि करता है तथा कांक्षामोहनीय कर्म को व्युच्छिन्न करता है।
(३) परिवर्तना से जीव व्यंजनों को प्राप्त करता है तथा व्यंजन-लब्धि को उत्पादित करता है।
(४) अनुप्रेक्षा से जीव आयु छोड़ सात कर्म प्रकृतियों को, जो गाढ़े बंधन से बंधी हुई होती हैं, शिथिल बंधन से बंधी करता है, दीर्धकाल स्थितिवाली से हस्वकाल स्थितिवाली करता है। बहुप्रदेशवाली को अल्प-प्रदेशवाली करता है। आयुष्य कर्म को वह कदाचित् बांधता है, कदाचित् नहीं बांधता तथा असातवेदनीय को बार-बार नहीं बांधता तथा अनादि, अनन्त, दीर्घ चारगति रूप संसार-कान्तार को शीघ्र ही व्यतिक्रम कर जाता
है
(५) धर्मकथा से निर्जरा करता है। धर्मकथा से प्रवचन की प्रभावना करता है और इससे जीव भविष्यकाल में केवल शुभ कर्मों का ही बंध करता है। स्वाध्याय से जीव ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय करता है। कहा है :
कम्ममसंखेज्जभवं खवेइ अणुसमयेव उवउत्तो। अन्नयरम्मि वि जोए सज्झायम्मि य विसेसेणं ।।
१. उत्तराध्ययन (३०.३४) में इनकी संग्राहक गाथा इस प्रकार है :
वायणा पुच्छणा चेव तहेण परियट्टणा।
अणुप्पेहा धम्मकहा सज्झाओ पंचहा भवे।। उत्त० २६.१६-२३ ३. उत्त० २६.१८ ४. उत्त० २६.१८ की नेमिचन्द्रीय टीका में उद्धत