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नव पदार्थ
चला जाना और फिर लौटते हुए दूसरी पंक्ति के घरों से भिक्षा लेना आयतंगत्वाप्रत्यागता अथवा गत्वाप्रत्यागता विधि कहलाती है।
(ग) दिवस के चारों पौरुषियों में जितना काल रखा हो उस नियत काल में साधु का भिक्षाटन करना काल अवमौदर्य है । अथवा तीसरी पौरुषी कुछ कम हो जाने पर या चौथाई भाग कम हो जाने-बीत जाने पर आहार की गवेषणा करना काल से भक्तपान अवमोदरिका है।
__ आगम में तीसरी पौरुषी में भिक्षा करने का विधान है। तीसरी पौरूषी के भी दो-दो घड़ी प्रमाण चार भाग होते हैं । इन चार भागों में किसी अमुक भाग में ही भिक्षा के लिए जाने का अभिग्रह काल की अपेक्षाा से अवमोदरिका है क्योंकि इसमें भिक्षा के विहित काल को भी न्यून-कम कर दिया जाता है।
(घ) स्त्री अथवा पुरुष, अलंकृत अथवा अनलंकृत, अमुक वयस्क अथवा अमुक प्रकार के वस्त्र को धारण करनेवाला, अन्य किसी विशेषता-हर्ष आदि को प्राप्त अथवा विशेष वर्णवाला-इन भावों से संयुक्त कोई देगा तो ग्रहण करूँगा-साधु का इस प्रकार
अभिग्रह पूर्वक भिक्षाटन करना भाव से भक्तपान अवमौदर्य है।
(ङ) द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के विषय में जो भाव कथन किये गये हैं उन सब भावों-पर्यायों से साधु का भक्तपान अवमोदरिका करना पर्याय अवमौदर्य कहलाता है। ऐसा भिक्षु पर्यवचरक कहलाता है।
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उत्त० ३०.२०-२१ : . दिवसस्स पोरुसीणं चउण्हं पि उ जत्तिओ भवे कालो। एवं चरमाणो खलु कालोमाणं मुणेयव्वं ।। अहवा तइयाए पोरिसीए ऊणाइ घासमेसन्तो। - चउभागूणाए वा एवं कालेण ऊ भवे ।। उत्त० ३०. २२-२३ : इत्थी वा पुरिसो वा अलंकिओ वा नलंकिओ वा वि। अन्नयरवयत्थो वा अन्नयरेणं व वत्थेणं।। अन्नेण विसेसेणं वण्णेणं भावमणुमुयन्ते उ। एवं चरमाणो खालु भावोमाणं मुणेयव्वं ।। वही : ३०.२४ : दव्वे खेत्ते काले भावम्मि य आहिया उ जे भावा। एएहि ओमचरओ पज्जवचरओ भवे भिक्खू ।।
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