________________
निर्जरा पदार्थ (टाल : २) : टिप्पणी १०
६५५
कर्मक्षयका हेतु होता है, वह आभ्यन्तर तप कहलाता है'।
(२) प्रायः बाह्य शरीर को तपानेवाला होने से जो लौकिक दृष्टि में भी तप रूप से माना जाय वह बाह्य तप और जो मुख्यतः आन्तर शरीर को तपानेवाला होने से दूसरों की दृष्टि में शीघ्र तप रूप प्रतिभाषित न हो, जिसे केवल सम्यक् दृष्टि ही तप रूप माने वह आभ्यन्तर तप है।
(३) लोकप्रतीत्य होने से कुतीर्थिक भी जिसका अपने अभिप्राय के अनुसार आसेवन करते हैं, वह बाह्य तप है और उससे भिन्न आभ्यन्तर तप है।
(४) जो बाह्य-द्रव्य के आलम्बन से होता है और दूसरों के देखने में आता है, उसे बाह्य तप कहते हैं तथा जो मन का नियमन करनेवाला होता है, वह आभ्यन्तर तप है।
(५) अनशन आदि बाह्य तप निम्न कारणों से बाह्य कहलाते हैं:
(क) इनमें बाह्य-द्रव्य की अपेक्षा रहती है, इसमें इन्हें बाह्य संज्ञा प्राप्त है। ये अशनादि द्रव्यों की अपेक्षा से किए जाते हैं।
(ख) ये तप दूसरों के द्वारा प्रत्यक्ष ज्ञेय होते हैं अतः बाह्य हैं।
१. समवायाङ्ग सम० ६ की अभयदेव सूरिकृत टीका :
बाह्यतपः बाह्यशरीरस्य परिशोषणेन कर्मक्षपणहेतुत्वादिति, आभ्यन्तरं-चित्तनिरोध
प्राधान्येन कर्मक्षपणहेतुत्वादिति। २. औपपातिक सूत्र ३० की अभयदेव सूरिकृत टीका :
अभिंतरए-अभ्यन्तरम्-आप्तरस्यैव शरीरस्य तापनात्सम्यग्दृष्टिभिरेव तपस्तया प्रतीयमानत्वाच्च, 'बाहीरए त्ति बाह्यस्यैव शरीरस्य तापनान्मिथ्यादृष्टि भिरपि तपस्तया प्रतीयमान
त्वाच्चेति। ३. उत्त० ३०.७ की श्री नेमिचन्द्राचार्य कृत टीका :
लोकप्रतीतत्वात् कुतीर्थिकैश्च स्वाभिप्रायेणाऽऽसेव्यमानत्वाद् बाह्यं तदितरच्चाऽभ्यन्तरमुक्तम् । ४. तत्त्वा० ६.१६-२० सर्वार्थसिद्धि :
बाह्यद्रव्यापेक्षत्वात्परप्रत्यक्षत्वाच्च बाह्यत्वम् । कथमस्याभ्यन्तरत्वम् ? मनोनियम-नार्थत्वात् ।