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नव पदार्थ
व्यापार में अप्रवृत्ति (२) अक्रिय - मन का कायिकादि क्रिया रहित होना (३) अकर्कश - मन का कर्कश भावरिहत होना (४) अकटुक - मन का इष्ट होना (५) अनिष्ठुर - मन का मार्दवभावयुक्त होना (६) अकठोर - मन का कठोरता रहित होना (७) अनाश्रवकर - मनका अशुभ कर्मों को उपार्जन करनेवाला न होना (८) अछेदनकारी - मन की वृत्ति का छेदनकारी न होना (९) अभेदकारी - मन की वृत्ति का अभेदनकारी होना (१०) अपरितापकारी-मन से दूसरों को परिताप पहुँचानेवाला न होना (११) अनुपद्रवकारी - मन से उपद्रव करनेवाला न होना और (१२) अभूतोपघातिक - मन से प्राणियों की घात करनेवाला न होना ।
५. वचन विनय' दो प्रकार का कहा है- ( १ ) अप्रशस्त वचन विनय और (२) प्रशस्त वचन विनय । अप्रशस्त वचन विनय और प्रशस्त वचन विनय का वर्णन क्रमशः अप्रशस्त मन विनय और प्रशस्त मन विनय की तरह ही करना चाहिए ।
६. काय विनय दो प्रकार का कहा है (१) प्रशस्तकाय विनय (२) अप्रशस्त काय विनय ।
(१) अप्रशस्त काय विनय सात प्रकार का कहा गया है : (१) अनायुक्त गमन-बिना उपयोग (सावधानी) जाना (२) अनायुक्त स्थिति - बिना उपयोग ठहरना (३) अनायुक्त निषदा-बिना उपयोग बैठना (४) अनायुक्त शयन - बिना उपयोग सोना (५) अनायुक्त
१.
वचन को असावद्य आदि रखना वचन - विनय तप है
२. औपपातिक में १२-१२ भेदों का वर्णन है जब कि भगवती (२५.७) और ठाणाङ्ग ( ७.३.५८५) में ७-७ भेदों का ही वर्णन है ।
३. गमनादि क्रियाएँ करते समय काय (शरीर) को सावधान रखना - काय विनय तप है। मन, वचन और काय विनय की परिभाषा निम्न गाथा में मिलती है : मणवइकाइयविणओ आयरियाईण सव्वकालंपि । अकुसलमणोनिरोंहो कुसलाण उदीरणं तहय । ।
(दश० १.१ की हारिभद्रीय टीका में उद्धृत) इसका अर्थ है-आचार्यादि के प्रति सदा अकुशल मनादि का निरोध और कुशल मनादि की उदीरणा । पर यह अर्थ मन-वचन-काय विनय के यहाँ वर्णित भेदों को देखने से घटित नहीं होता ।