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निर्जरा पदार्थ ( ढाल : २) : टिप्पणी ६
(२) मान के उदय का निरोध-मान को उदय न होने देना अथवा उदयप्राप्त - उत्पन्न हुए मान को विफल करना ।
(३) माया के उदय का निरोध- माया को उदय न होने देना अथवा उदयप्राप्त-उत्पन्न माया को विफल करना ।
(४) लोभ के उदय का निरोध-लोभ को उदय न होने देना अथवा उदयप्राप्त - उत्पन्न लोभ को विफल करना ।
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(१) अकुशल मन का निरोध, कुशल मन की उदीरणा - प्रवृत्ति और मन को एकाग्रभाव करना - यह मनयोग प्रतिसंलीनता है ।
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३. योगप्रतिसंलीनता तप तीन प्रकार का कहा गया है' :
(२) अकुशल वचन का निरोध, कुशल मन की उदीरणा - प्रवृत्ति और वचन को एकाग्रभाव करनार - यह वचनयोग प्रतिसंलीनता है।
(३) हाथ-पैरों को सुसमाहित कर कुम्भ की तरह गुप्तेन्द्रिय और सर्व अंगों को प्रतिसंलीन कर स्थिर रहना - यह काययोग प्रतिसंलीनता है ।
२.
१. योगसंलीनता के विषय में ठाणाङ्ग ४.२.२७८ की टीका में उद्धृत निम्न गाथा मिलती है : अपसत्थाण निरोहो जोगाणमुदीरणं च कुसलाणं ।
कज्जमि य विही गमण जोगे संलीणया भणिया ।।
३.
४.
मूल - 'मणस्स वा एगत्तीभावकरणं ( भगवती २५.७) । इस तीसरे भेद का औपपातिक में उल्लेख नहीं है ।
मूल - 'वइए वा' एगत्तीभावकरणं' (भगवती २५.७) । इस तीसरे भेद का औपपातिक में उल्लेख नहीं हैं।
औपपातिक (सम० ३०) का मूल पाठ इस प्रकार है :
"जंणं सुसमाहियपाणिपाए कुम्मी इव गुत्तिंदिए सव्वगायपडिसंलीणे चिट्ठइ, से तं कायजोगपडिलीणया ।
भगवती सूत्र में (२५.७) काययोगप्रतिसंलीनता की परिभाषा इस प्रकार है- "जन्नं सुसमाहियपसंतसाहरियपाणिपाए कुम्मो इव गुत्तिंदिए अल्लीणे पल्लीणे चिट्ठति; सेत्तं कायपडिसंलीणया ।"
अर्थ इस प्रकार है- सुसमाहित प्रशांत हो हाथ-पैरों को संकोच कुंभ की तरह गुप्तेन्द्रिय और आलीन - प्रलीन स्थिर रहना काययोग प्रतिसंलीनता है ।