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नव पदार्थ
यतश्चचतुर्विधा इयमुक्ता।" यहाँ आचार्य नेमिचन्द्र ने स्पष्ट कर दिया है कि चार संलीनताओं में केवल एक का ही यहाँ उल्लेख है अतः वह छठे तप का नाम नहीं उसके एक भेदमात्र का संलीनता तप के उपलक्षण रूप से उल्लेख है। औपपातिक और भगवती से भी स्पष्ट है कि 'विविक्तशयनासन' प्रतिसंलीनता तप का एक भेदमात्र है। तत्त्वार्थ सूत्र (६.१६) में बाह्य तपों का नाम बताते हुए भी इसका नाम 'विविक्तशय्यासन' कहा है और उसका स्थान पाँचवाँ-कायक्लेश के पहले रखा है।
प्रति अर्थात् विरुद्ध में, संलीनता अर्थात् सम्यक् प्रकार से लीन होना । क्रोधादि विकारों के विरुद्ध में उनके निरोध में सम्यक् प्रकार से लीन-उद्यत होना-'प्रतिसंलीनता तप' है।
उपर्युक्त चार प्रकार के तपों का स्पष्टीकरण नीचे दिया जाता है: १. इन्द्रियप्रतिसंलीनता तप पाँच प्रकार का कहा गया है:
(१) श्रोतेन्द्रिय की विषय-प्रवृत्ति का निरोध अथवा प्राप्त हुए श्रोतेन्द्रिय के विषयों या अर्थों में राग-द्वेष का निग्रह ।
(२) चक्षुरिन्द्रिय की विषय-प्रवृत्ति का निरोध अथवा प्राप्त हुए चक्षुरिन्द्रिय के विषयों या अर्थों में राग-द्वेष का निग्रह ।
(३) घ्राणेन्द्रिय की विषय-प्रवृत्ति का निरोध अथवा प्राप्त हुए घ्राणेन्द्रिय के विषयों या अर्थों में राग-द्वेष का निग्रह ।
(४) रसनेन्द्रिय की विषय-प्रवृत्ति का निरोध अथवा प्राप्त हुए रसनेन्द्रिय के विषयों या अर्थों में राग-द्वेष का निग्रह।
(५) स्पर्शनेन्द्रिय की विषय-प्रवृत्ति का निरोध अथवा प्राप्त हुए स्पर्शनेन्द्रिय के विषयों या अर्थों में राग-द्वेष का निग्रह ।
२. कषायप्रतिसंलीनता तप चार प्रकार का कहा गया है :
(१) क्रोध के उदय का निरोध-क्रोध को उदय न होने देना अथवा उदयप्राप्त-उत्पन्न हुए क्रोध को विफल करना।
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ठाणाङ्ग ४.२.२७८ की टीका में उद्धृत : उदयस्सेव निरोहो उदयप्पत्ताण वाऽफलीकरणं। जं एत्थ कसायाणं कसायसंलीणया एसा ।।