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नव पदार्थ
आ० पूज्यपाद ने संयम की जागृति, दोषों के प्रशम तथा सन्तोष और स्वाध्याय की सुखपूर्वक सिद्धि के लिए इसे आवश्यक बताया है। ६. भिक्षाचर्या तप (गा० १२) :
उत्तराध्ययन, औपपातिक, भगवती और ठाणाङ्ग में इस तप का यही नाम मिलता
__ इस तप के वृत्तिसंक्षेपऔर वृत्तिपरिसंख्यान, नाम भी प्राप्त हैं।
प्रश्न हो सकता है कि अनशन-आहार-त्याग को तप कहा है तब भिक्षाचर्या-भिक्षाटन को तप कैसे कहा ? इसका कारण यह है कि अनशन की तरह भिक्षाटन में भी कष्ट होने से साधु को निर्जरा होती है। अतः वह भी तप है । अथवा विशिष्ट और विचित्र प्रकार के अभिग्रह से संयुक्त होने से वह साधु के लिए वृत्तिसंक्षेप रूप है और इस तरह वह तप है | आ० पूज्यपाद ने इसका लक्षण इस प्रकार बताया है-“मुनेरेकागारा दिविषयः सङ्कल्पः चिन्तावरोधो वृत्तिपरिसंख्यानम् । इसका फल आशा-निवृत्ति है।
अभिग्रह के उपरांत भिक्षा न करने से स्वामीजी ने इसका लक्षण भिक्षा-त्याग किया है। उन्होंने भिक्षाचार्य को अनेक प्रकार का कहा है। आगम में निम्न भेदों का उल्लेख मिलता है:
१. तत्त्वा० ६-१६ सर्वार्थसिद्धि
संयमप्रजागरदोषप्रशमसन्तोषस्वाध्यायादिसुखसिद्ध्यर्थमवमौदर्यम्। २. समवायाङ्ग : सम० ६ ३. (क) तत्त्वा० १६.१६
(ख) दववैकालिक नियुक्ति गा० ४७ ४. ठाणाङ्ग ५.३.५११ टीका :
भिक्षाचर्या सव तपो निर्जराङ्गत्वादनशनवद् अथवा सामान्योपादानेऽपि विशिष्टा विचित्राभिग्रहयुक्तत्वेन वृत्तिसंक्षेपरूपा का ग्राह्या। औपपातिक सम० ३० : दव्वाभिग्गहचरए खेत्ताभिग्गहचरए कालाभिग्गहचरए भावाभिग्गहचरए उक्खित्तचरए णिक्खित्तचरए उक्खित्तणिक्खित्तचरए णिक्खित्तउक्खित्तचरए वट्टिज्जमाणचरए साहरिज्जमाणचरए उवणीयचरए अवणीयचरए उवणीयअवणीयचरए अवणीयउवणीयचरए संसठ्चरए असंसठ्ठचरए तज्जायसंढचरए अण्णायचरए गोणचरए दिठ्ठलाभिए अदिठ्ठलाभिए पुठ्ठलाभिए अपुठ्ठलाभिए भिक्खालाभिए अभिक्खालाभिए अण्णागिलाए ओवणिहिए परिमियपिंडवाइए सुद्धैसणिए संखादत्तिए।