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नव पदार्थ
और मांस' । इनका परिवर्जन निर्विकृति तप है।
जो शरीर और मन को प्रायः विकार करनेवाली हो, उन्हें विकृति कहा है (विकृतयः शरीरमनसोः प्रायो विकार हेतुत्वात्)। मधु, मांस, मद्य और नवनीत-इन चार को महाविकृतियाँ कहा जाता है (ठाणाङ्ग ४.१.२७४)। इसका कारण यह है कि महा रस के । फलस्वरूप ये महा विकार तथा महा जीवोपघात की हेतु हैं।
ठाणाङ्ग में उल्लिखित नौ विकृतियों के उपरांत औप० टीका द्वारा उद्धृत वृद्धगाथा में 'ओगाहिमगं'-अवगाहिम-घृत या तेल में तली वस्तु को भी विकृति कहा है। गाथा इस प्रकार है
खीरदहि णवणीयं, घयं तहा तेल्लमेव गुडमज्जं।
महु मंसं चेव तहा, ओगाहिमगं च दसमी उ ।। (२) प्रणीतरस-परित्याग-प्रणीतर-घी आदि से अत्यन्त स्निग्ध-रसयुक्त पेय और भोजन का विवर्जन।
(३) आचाम्ल-कुल्माष, ओदन आदि और जल का आहार |
१. वृद्धगाथा के अनुसार जलचर, थलचर और खेचर जीवों की अपेक्षा से माँस तीन प्रकार
का होता है। अथवा माँस, वसा-चरबी और शोणित के भेद से तीन प्रकार का होता है। २. वहां यह स्पष्ट कर दिया गया है कि प्रथम तीन पावों में तली वस्तु ही विकृति है।
घी या तेल-भरी कड़ाही में जब प्रथम बार पुरियाँ डाली जाती हैं तो उसे प्रथम पावा कहा जाता है। चौथे पावे में तली पुरियाँ विकृति में नहीं आती यथा
आइल्ल तिन्नी चल चल, ओगाहिमगं च विगईओ।
सेसा न होति विगई अ, जोगवाहीण ते उ कपंती।। इसी प्रकार स्पष्ट किया गया है कि तवे पर घी आदि डालकर पहली बार जो चीज पूरी जाती है, वह विकृति है। पर उसी तवे के उसी घी में जो दूसरी-तीसरी बार में पूरी जाती है, वह वस्तु विकृति नहीं है। उसे लेपकृत कहा जाता है
___एक्केण चेव तवओ, पूरिज्जइ पूयएण जो ताओ।
__विईओऽवि स पुण कप्पइ, निविगईअ लेवडो नवरं ।। ३. (क) अतिस्नेहवान-समवायाङ्ग सम० २५ टीका
(ख) गलघृततदुग्धादि बिन्दु :-औपपातिक सम० ३० टीका (ग) अति वृहकं-उत्तराध्ययन ३०:२६ टीका