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________________ ६४० नव पदार्थ आ० पूज्यपाद ने संयम की जागृति, दोषों के प्रशम तथा सन्तोष और स्वाध्याय की सुखपूर्वक सिद्धि के लिए इसे आवश्यक बताया है। ६. भिक्षाचर्या तप (गा० १२) : उत्तराध्ययन, औपपातिक, भगवती और ठाणाङ्ग में इस तप का यही नाम मिलता __ इस तप के वृत्तिसंक्षेपऔर वृत्तिपरिसंख्यान, नाम भी प्राप्त हैं। प्रश्न हो सकता है कि अनशन-आहार-त्याग को तप कहा है तब भिक्षाचर्या-भिक्षाटन को तप कैसे कहा ? इसका कारण यह है कि अनशन की तरह भिक्षाटन में भी कष्ट होने से साधु को निर्जरा होती है। अतः वह भी तप है । अथवा विशिष्ट और विचित्र प्रकार के अभिग्रह से संयुक्त होने से वह साधु के लिए वृत्तिसंक्षेप रूप है और इस तरह वह तप है | आ० पूज्यपाद ने इसका लक्षण इस प्रकार बताया है-“मुनेरेकागारा दिविषयः सङ्कल्पः चिन्तावरोधो वृत्तिपरिसंख्यानम् । इसका फल आशा-निवृत्ति है। अभिग्रह के उपरांत भिक्षा न करने से स्वामीजी ने इसका लक्षण भिक्षा-त्याग किया है। उन्होंने भिक्षाचार्य को अनेक प्रकार का कहा है। आगम में निम्न भेदों का उल्लेख मिलता है: १. तत्त्वा० ६-१६ सर्वार्थसिद्धि संयमप्रजागरदोषप्रशमसन्तोषस्वाध्यायादिसुखसिद्ध्यर्थमवमौदर्यम्। २. समवायाङ्ग : सम० ६ ३. (क) तत्त्वा० १६.१६ (ख) दववैकालिक नियुक्ति गा० ४७ ४. ठाणाङ्ग ५.३.५११ टीका : भिक्षाचर्या सव तपो निर्जराङ्गत्वादनशनवद् अथवा सामान्योपादानेऽपि विशिष्टा विचित्राभिग्रहयुक्तत्वेन वृत्तिसंक्षेपरूपा का ग्राह्या। औपपातिक सम० ३० : दव्वाभिग्गहचरए खेत्ताभिग्गहचरए कालाभिग्गहचरए भावाभिग्गहचरए उक्खित्तचरए णिक्खित्तचरए उक्खित्तणिक्खित्तचरए णिक्खित्तउक्खित्तचरए वट्टिज्जमाणचरए साहरिज्जमाणचरए उवणीयचरए अवणीयचरए उवणीयअवणीयचरए अवणीयउवणीयचरए संसठ्चरए असंसठ्ठचरए तज्जायसंढचरए अण्णायचरए गोणचरए दिठ्ठलाभिए अदिठ्ठलाभिए पुठ्ठलाभिए अपुठ्ठलाभिए भिक्खालाभिए अभिक्खालाभिए अण्णागिलाए ओवणिहिए परिमियपिंडवाइए सुद्धैसणिए संखादत्तिए।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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