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नव पदार्थ
(क) जिसका जितना आहार है उसमें से जघन्य में एक कवल भी न्यून करना द्रव्य से भक्तपान अवमोदरिका तप है। आगम में कहा है :
कुकड़ी के अण्डे जितने बत्तीस कवल का आहार करना प्रमाण प्राप्त आहार कहलाता है। इससे एक भी कवल अल्प आहार करनेवाला श्रमणनिर्ग्रन्थ प्रकामरसभोजी नहीं होता।
कुकड़ी के अण्डे जितने इकतीस कवल से अधिक आहार न करना किंचित् भक्तपान अवमोदरिका है।
कुकड़ी के अण्डे जितने चौबीस कवल से अधिक आहार न करना एकभाग-प्राप्त भक्तपान अवमोदरिका है।
कुकड़ी के अण्डे जितने सोलह कवल से अधिक आहार न करना दोभाग-प्राप्त अवमोदरिका है।
कुकड़ी के अण्डे जितने बारह कवल से अधिक आहार न करना अपार्धा भक्तपान अवमोदरिका है।
कुकड़ी के अण्डे जितने आठ कवल से अधिक आहार न करना अल्पाहार है।
१. उत्त० ३०.१५ :
जो जस्स उ आहारो तत्तो ओमं तु जो करे।
जहन्नेणेगसित्थाई एवं दव्वेण ऊ भवे।। २. (क) औपपातिक सम० ३०
(ख) भगवती २५.७ (ग) ठाणाङ्ग ३.३.१८२ की टीका में उद्धृत :
बत्तीसं किर कवला आहारो कुच्छिपूरओ भणिओ। पुरिसस्स महिलियाए अट्ठावीसं भवे कवला।। कवलाण य परिमाणं कुक्कुडिअंडगपमाणमेत्तं तु।
जो वा अविगिअवयणो वयणंमि छुहेज्ज वीसत्थो।। अप्पाहार १ अवड्ढा २ दुभाग ३ पत्ता ४ तहेव किंचूणा।
अट्ठ १ दुवालस २ सोलस ३ चउबीस ४ तहेक्कतीसा य ५।। ३. यहाँ दिया हुआ अनुवाद औपपातिक सूत्र के क्रम से ठीक उल्टा है। मूल “कुकड़ी के
अण्डे जितने आठ कवल से अधिक आहार न करना अल्पाहार है-से शुरू होता है और "प्रकामरसभोजी नहीं कहलाता में शेष होता है। समझने की सुगमता की दृष्टि से क्रम उल्टा रखा गया है।