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`निर्जरा पदार्थ (ढाल : २) : टिप्पणी ५
इस वार्त्तालाप से भी तीन ही भेद फलित होते हैं। नीचे तीनों प्रकार के
अवमोदरिका तपों का स्वरूप संक्षेप में दिया जा रहा है :
१. उपकरण अवमोदरिका :
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यह तीन प्रकार का होता है' :
(क) एक वस्त्र से अधिक का उपयोग न करना ।
(ख) एक पात्र से अधिक का उपयोग न करना ।
(ग) चियत्तोपकरणस्वदनता । संयमीसम्मत उपकरण का धारण करना अथवा मलीन वस्त्र, उपकरण - उपधि आदि में भी अप्रीतिभाव न करना ।
साधु आगमविहित वस्त्र पात्र रख सकता है । विध्यानुसार रखे हुए वस्त्र -पात्रों से साधु असंयमी नहीं होता। अधिक रखनेवाला अथवा यत्नापूर्वक व्यवहार नहीं करनेवाला साधु असंयमी होता है :
जं वट्टइ उवगारे, उवकरणं तं सि होइ उवगरणं ।
अइरेगं अहिगरणं, अजओ अजयं परिहरंतो' । ।
साधारणतः साधु के लिए अधिक वस्त्रादिक का अग्रहण ही अवमोदरिका तप है । जो साधु विहित वस्त्र पात्र - उपधि को भी न्यून करता है, वह अवमोदरिका तप करता है। मलीन वस्त्र पात्रों में अप्रीतिभाव का होना उपकरण मूर्छा है। इस मूर्छा का घटाना-मिटाना उपकरण अवमोदरिका है।
२. भक्तपान अवमोदरिका :
द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और पर्याय की अपेक्षा में यह तप पाँच प्रकार का बताया गया है ।
१. ( क ) ठाणाङ्ग ३.३.१८२ :
उवगरणोमोदरिता तिविहा पं० तं०- एगे वत्थे एगें पाते चियत्तोवहिसातिज्जणता
(ख) औपपातिक सम० ३०
(ग) भगवती २५.७
२. ठाणाङ्ग ३.३.१८२ की टीका में उद्धृत
३.
उत्त० ३०.१४ :
ओमोयरणं पंचहा समासेण वियाहियं ।
दव्वओ खेत्तकालेणं भावेणं पज्जवेहि य ।।