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निर्जरा पदार्थ (ढाल : २) : टिप्पणी ४
निर्धारिम और अनिर्धारिम शब्दों की व्याख्याएँ निम्न रूप में मिलती हैं :
(क) जो वसति या उपाश्रय के एक भाग में किया जाता है जिससे कि कलेवर को उस आश्रय से निकालना पड़ता है, वह निर्हारिम अनशन है। जो गिरिकंदरादि में किया जाता है, वह अनिर्हारिम अनशन कहलाता है (भगवती २५.७ ठाणाङ्ग २.४.१०२ टीका) ।
(ख) जो गिरिकन्दरादि में किया जाता है जिससे ग्रामादि के बाहर गमन करना होता है, वह निर्धारि और उससे विपरीत जो व्रजिकादि में किया जाता है और जिसमें शव उठाया जाय ऐसी अपेक्षा है, वह अनिर्हारी कहा जाता है' ।
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(ग) जो ग्रामादि के बाहर गिरिकंदरादि में किया जाता है, वह निर्धारिम। जो शव उठाया जाय इस कामना से व्रजिकादि में किया जाता है और जिसका अन्त वहीं होता है, वह अनिर्हारी कहलाता है
बहिया गामाईणं, गिरिकंदरमाइ नीहारिं ।
वइयाइसु जं अंतो, उट्ठेउमणाण ठाइ अणिहारि । ।
इन व्याख्याओं में निर्धारिम-अनिर्धारिम शब्दों के अर्थ के विषय में मतभेद स्पष्ट है। यह देखकर एक आचार्य कहते हैं - परमार्थ तु बहुश्रुता विदन्ति ।'
सारांश यह है कि मारणांतिक अनशन दो तरह का होता है एक जो ग्रामादि स्थानों में किया जाता है और दूसरा जो एकांत पर्वतादि स्थानों पर किया जाता है। पादोपगमन अनशन नियम से अप्रतिकर्म होता है और भक्तप्रत्याख्यान अनशन नियम से सप्रतिकर्म ।
सपरिकर्म और अपरिकर्म शब्दों का अर्थ संलेषनापूर्वक और बिना संलेषना - ऐसा ऊपर बताया जा चुका है। इनका दूसरा अर्थ भी है । सपरिकर्म-स्थाननिषदनादिरूपपरिकर्मयुक्तम्, अपरिकर्म तद्विपरीतम् ।
१. उत्त० ३०.१३ की नेमिचन्द्राचार्य कृत टीका :
निर्हरणं निर्धारः - गिरिकन्दरादिगमनेन ग्रामादेर्वहिर्गमनं तद्विद्यते यत्र तन्निर्हारि, तदन्यदनिर्धारि यदुत्थातुकामे व्रजिकादौ विधीयते
२.
उत्त० ३०.१३ की नेमिचन्द्राचार्य कृत टीका में उद्धृत
३. मूल शब्द 'सप्पडिकम्म' 'अप्पडिकम्मे' हैं। उत्तराध्ययन (३०.१३) में मूल शब्द 'सपरिकम्मासपरिकर्म, 'अपरिकम्मा' अपरिकर्म हैं ।
अप्रतिकर्म - शरीर- प्रतिक्रिया-सेवा का वर्जन जिस में हो । सप्रतिकर्म-शरीर प्रतिक्रिया-सेवा का वर्जन जिसमें न हो । उत्त० ३०.१३ की श्री नेमिचन्द्राचार्य कृत टीका
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