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निर्जरा पदार्थ (ढाल : २) : टिप्पणी ४
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(३) भक्तप्रत्याख्यान :
भक्तप्रत्याख्यान या भक्तपरिज्ञा अनशन तीन अथवा चार प्रकार के आहार - त्याग से निष्पन्न होता है । यह नियम से सप्रतिकर्म-जिस प्रकार समाधि हो शरीर की वैसी ही प्रतिक्रिया से युक्त कहा गया है । भक्तप्रत्याख्यान अनशन करनेवाला स्वयं उद्वर्त्तन-परिवर्तन करता है और समर्थ न होने पर समाधि के लिए थोड़ा अप्रतिबद्धरूप से दूसरे से भी कराता है । इसके लक्षण बतलानेवाली निम्नलिखित गाथाएँ स्मरण रखने योग्य हैं' : भत्तपरिन्नाणसणं तिचउव्विहाहारचायणिप्फन्नं । सप्पडिकम्मं नियमा जहासमाही विणिद्दिद्वं । । उव्वत्तइ परियत्तइ, सयमन्नेणावि कारए किंचि । जत्थ समत्थो नवरं समाहिजणयं अपडिबद्धो ।।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि पादोपगमन और इंगिनी में चार प्रकार के आहार का त्याग होता है और भक्तप्रत्याख्यान में तीन प्रकार के आहार का भी त्याग हो सकता है । पादोपगमन सर्व चेष्टाओं से रहित होता है। इंगिनीमरण में दूसरे का सहारा लिए बिना नियत चेष्टाएँ की जा सकती हैं और भक्तप्रत्याख्यान में दूसरे के सहारे से भी चेष्टाएँ की जा सकती हैं। दूसरे शब्दों में पादोपगमन अविचार अनशन है और इंगिनी मरण तथा भक्तप्रत्याख्यान सविचार अनशन है । पादोपगमन में जो स्थान ग्रहण किया हो उससे लेशमात्र भी इधर-उधर नहीं हुआ जा सकता अर्थात् पतित-पादप की तरह उसी स्थान पर बिना हिले-डुले रहना पड़ता है। इंगिनी में नियत स्थान में हलचल की जा सकती है । भक्तप्रत्याख्यान में क्षेत्र की नियति नहीं होती अतः लम्बा विहार आदि किया जा सकता है।
व्याघात और निर्व्याधात भेद :
पादोपगमन अनशन और भक्तप्रत्याख्यान दोनों दो-दो प्रकार के कहे गये हैं(१) व्याघात और (२) निर्व्याघात ।
सिंह, दावानल आदि उपसर्गों से अभिभूत होने पर हटात् जो अनशन किया जाता है, वह व्याघात और बिना ऐसी परिस्थितियों के यथाकाल किया जाय, वह निर्व्याघात अनशन है।
१. (क ) ठाणाङ्ग २.४.१०२ की टीका में उद्धृत (ख) उत्त० २०.१२ की टीका में उद्धृत