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निर्जरा पदार्थ (ढाल : २) : टिप्पणी ४
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"मनस ईप्सितः- इष्टः; चित्रः-अनेक प्रकारः; अर्थ:-स्वर्गापवर्गादिः तेजो
लेश्यादिर्वा यस्मात् तद् मनईप्सितचित्रार्थ ज्ञातव्यं भवति इत्वरकं तपः।" दशवैकालिक में इहलोक और परलोक के लिए तप करना वर्जित है। वैसी हालत में इत्वरिक तप स्वर्ग तेजोलेश्यादि मनोवाञ्छित अर्थ के लिए किया जा सकता है या किया जाता है। ऐसा अर्थ सूत्र की गाथा का है या नहीं, यह जानना आवश्यक है।
आचार्य श्री आत्मारामजी ने इसका अर्थ भिन्न किया है-“मनोवांछित स्वर्गापवर्ग फलों को देनेवाला यह इत्वारिक तप सावधिक तप है" (उतराध्ययन अनुवादः भाग ३ पृ० ११३७)। श्री सन्तलालजी ने भी अपने अनुवाद में प्रायः ऐसा ही अर्थ किया है (देखिए पृ० २७८)। यह अर्थ भी ठीक है या नहीं, देखना रह जाता है।
इस पद का शब्दार्थ-"मनइच्छित विचित्र अर्थवाला इत्वरिक तप जानने योग्य है" | इसका भावार्थ-इत्वरिक तप करने वाले की इच्छानुसार विचित्र होता है-वह एक दिन से लगाकर छह मास तक का हो सकता है। वह इच्छा अनुसार भिन्न-भिन्न रूप से किया जा सकता है। करनेवाला चाहे तो उसे श्रेणितप के रूप में कर सकता है या अन्य किसी रूप में । विचित्र अर्थवाला-इसका तात्पर्य यहाँ यह नहीं है कि वह स्वर्ग-अपवर्ग आदि भिन्न-भिन्न फल-हेतुओं के लिए किया जा सकता है। यहाँ 'अर्थ' का पर्याय शब्द फल-हेतु नहीं लगता। इसमें सन्देह नहीं कि तप स्वर्ग-अपवर्ग आदि भिन्न-भिन्न फलों को दे सकता है पर 'अर्थ' शब्द का व्यवहार यहाँ फल के रूप में हुआ नहीं लगता। इस तप के औपपातिक और उत्तराध्ययन में जो अनेक प्रकार बताये गए हैं और जो उपर वर्णित हैं, वे इत्वरिकतप की विचित्रता के प्रचुर प्रमाण हैं। इत्वरिकतप करनेवाले की इच्छा या सामर्थ्य के अनुसार भिन्न-भिन्न अर्थ-प्रकार-अभिव्यंजना-प्रतिपत्ति-रचना-रूप को लेकर हो सकता है। इसी बात को ध्यान में रखकर हमने इस पद का अर्थ किया है-मनइच्छित-मन अनुसार, विचित्र-नाना प्रकार के, अर्थ-रूप-भेद वाला इत्वरिक तप
२. यावत्कथिक अनशन :
यावत्कथिक-मारणान्तिक अनशन दो प्रकार का कहा गया है- (१) सविचार और (२) अविचार। यह भेद काय-चेष्टा के आश्रय से है।
१. डॉ० याकोबी आदि ने ऐसा ही अर्थ किया है। (देखिए सी. बी. ई. वो० ४० पृ० १७५) २. उत्त० ३०.१२ :
जा सा अणसणा मरणे दुविहा सा वियाहिया। सवियारमवियारा कायचिटुं पई भवे ।।