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निर्जरा पदार्थ (ढाल : २) : टिप्पणी ४
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एक बेला-इस तरह छह बेला के भोजन का वर्जन होता है अतः उसे षष्ठभक्त कहा है। आगे भी इसी तरह समझना चाहिए। ऐसा लगता है कि जैन परम्परा के अनुसार उपवास २४ घंटे से अधिक का होना चाहिए। उपवास के पहले दिन सूर्यास्त होने के पहले-पहले वह आरंभ होना चाहिए। उपवास के दूसरे दिन सूर्योदय के पूर्व उपवास का पारणा नहीं होना चाहिए।
उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट है कि इत्वरिक तप जघन्य से एक दिन का और उत्कृष्ट से षट् मास तक का होता है। टीका भी इसका समर्थन करती है- 'इत्वरं चतुर्थादि षण्मासान्तमिदं तीर्थमाश्रित्येति ।
कहीं-कहीं 'नवकारसहित' को भी इत्वरिक तप कहा है पर उपवास से कम इत्वरिक तप नहीं होना चाहिए।
उत्तराध्ययन में तप छह प्रकार का बताया गया है-(१) श्रेणितप (२) प्रतरतप (३) घनतप, (४) वर्गतप, (५) वर्गवर्गतप और (६) प्रकीर्णतप । संक्षेप में इनका स्वरूप इस प्रकार है :
(१) श्रेणितप-ऊपर में इत्वरिक तप के जो उपवास से षट्मासिक तप तक के भेद बताये गये हैं, उन्हें क्रमशः निरन्तर एक के बाद एक करने को श्रेणितप कहते हैं; यथा-उपवास के पारणा के दूसरे दिन बेला करना दो पद का श्रेणितप है। उपवास कर, बेला कर, तेला कर, चोला करना-चार पदों का श्रेणितप है; इस तरह एक उपवास से क्रमशः षट्मासिक तप की अनेक श्रेणियाँ हो सकती हैं। पंक्ति उपलक्षित तप को श्रेणितप कहते हैं।
१. ठाणाङ्ग ३.३.१८२ की टीका :
एकं पूर्वदिने द्वे उपवासदिने चतुर्थ पारणकदिने भक्तं-भोजनं परिहरति यत्र तपसि तत्
चतुर्थभक्तम् २. ठाणाङ्ग ५.३.५१२ की टीका ३. उत्त० ३०.१०-११ :
जो सो इत्तरियतवो सो समासेण छव्विहो। सेढितवो पयरतवो घणो य तह होइ वग्गो य।। तत्तो य वग्गवग्गो पंचमो छट्ठओ पइण्णातवो।
मणइच्छियचित्तत्थो नायव्वो होइ इत्तिरिओ।। ४. उत्त० ३०.१० की नेमिचन्द्रीय टीका :
पङ्किस्तदुपलक्षितं तपः श्रेणितपः