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निर्जरा पदार्थ ( ढाल : २) : टिप्पणी ३
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(३) फिर उन्हें साफ जल में खँगाल कर स्वच्छ करता है ।
ऐसा करने के बाद वस्त्रों से मैल दूर हो जाता है ।
स्वामीजी धोबी की तुलना को दो तरह से घटाते हैं। तप साबुन के समान है और आत्मा वस्त्र के समान । ज्ञान जल है और ध्यान स्वच्छजल । तपरूपी साबुन लगाकर आत्मा को तपाने से, ज्ञानरूपी जल से छांटने से और फिर ध्यानरूपी जल में धोने-खँगालने से आत्मारूपी वस्त्र में लगा हुआ कर्मरूपी मैल दूर होता है और आत्मा स्वच्छ रूप में प्रकट होती है।
यदि ज्ञान को साबुन माना जाय तो तप निर्मल नीर का स्थान ग्रहण करेगा । अन्तरात्मा धोबी के समान होगी और आत्मा के निजगुण वस्त्र के समान होंगे। स्वामीजी कहते हैं- "जीव ज्ञानरूपी शुद्ध साबुन और तपरूपी निर्मल नीर से अपने आत्मारूपी वस्त्र को धोकर स्वच्छ करे ।"
३. निर्जरा की एकांत शुद्ध करनी ( गा० ५ - ६ ) :
प्रथम टिप्पणी में यह बताया गया था कि निर्जरा चार प्रकार की होती है। उनमें से तीन प्रकार ऐसे हैं जिनमें कर्म-क्षय की भावना नहीं होती । जिन्हें जीव आत्मा की विशुद्धि के लक्ष्य से नहीं अपनाता । चौथा उपाय जीव कर्म-क्षय के लक्ष्य से अपनाता है।
यहाँ स्वामीजी कहते हैं कि निर्जरा की एकान्त शुद्ध करनी वही है जिसका एकमात्र लक्ष्य कर्म-क्षय है । जिस करनी का लक्ष्य कर्म-क्षय के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं होता, वही करनी जीव के प्रदेशों से कर्म-मैल को दूर कर आत्मा को अन्य रूप से स्वच्छ करती है । जिस तप के साथ ऐहिक कामना - कर्म-क्षय के सिवाय अन्य आकांक्षा या भावना जुड़ी रहती है अथवा जो उद्देश्य रहित होता है उस तप से अल्प मात्रा में कर्म-क्षय होने पर भी - अकाम निर्जरा होने पर भी आत्म शुद्धि की प्रक्रिया में उसका स्थान नहीं होता । आत्म-विशुद्धि की प्रक्रिया इच्छाकृत निष्काम तपस्या ही है । वह ऐहिक-लक्ष्य के साथ नहीं चलती । उसका लक्ष्य एकान्त आत्म-कल्याण ही होता है। जो तप एकान्ततः कर्म-क्षय के लिए किया जाता है वही तप विशुद्ध होता है और उससे कर्मों का क्षय भी चरम कोटि का होता है । ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप - इन चार को मोक्षमार्ग कहां गया है। यहाँ सम्यक् तप का ग्रहण है। सम्यक् तप वही है जिसका लक्ष्य सम्पूर्णतः आत्म-विशुद्धि हो । मोक्ष-मार्ग में कर्म-क्षय की ऐसी ही करनी स्वीकृत और उपादेय है। उस के बारह
भेद हैं।