________________
६२८
नव पदार्थ
(२) प्रतरतप-एक श्रेणितप को जितने क्रम-प्रकारों से किया जा सकता है उन सब क्रम-प्रकारों को मिलाने से 'प्रतरतप होता है। उदाहरण स्वरूप उपवास, बेला, तेला और चौला-इन चार पदों की श्रेणि लें। इसके निम्नलिखित चार क्रम-प्रकार बनते हैं :
| क्रम प्रकार | १ । २ । ३ । ४ । | १ | उपवास | बैला | तेला | चौला | २ | बेला । तेला । चौला । उपवास
तेला .
चौला उपवास ४ । चौला | उपवास | बेला । तेला |
बेला
यह प्रतरतप है। इसमें कुल पदों की संख्या १६ है। इस तरह यह तप श्रेणि को श्रेणिपदों से गुणा करने से बनता है (श्रेणिरेव श्रेण्या गुणिता प्रतर तप उच्यते-श्री नेमिचन्द्राचार्य)
(३) घनतप-जितने पदों की श्रेणि है प्रतर को उतने पदों से गुणा करने से घनतप बनता है (पदचतुष्टयात्मिकथा श्रेण्या गुणिता घनो भवति-श्री नेमिचन्द्राचार्य)। यहाँ चार पदों की श्रेणि है। अतः उपर्युक्त प्रतर तप को चार से गुणा करने से अर्थात् उसे चार बार करने से घनतप होता है। घनतप के ६४ पद बनते हैं।
(४) वर्गतप-घन को घन से गुणा करने पर वर्गतप बनता है (घन एव घनेन गुणितो वर्गो भवति-श्री नेमिचन्द्राचार्य) अर्थात् घनतप को ६४ बार करने से वर्गतप बनता है। इसके ६४४६४-४०६६ पद बनने हैं।
(५) वर्गवर्गतप- वर्ग को वर्ग से गुणा करने पर वर्गवर्गतप बनता है (वर्ग एव यदा वर्गेण गुण्यते तदा वर्गवर्गो भवति-वही) अर्थात् वर्गतप को ४०६६ बार करने से वर्गवर्गतप बनता है। इनके ४०६६x४०६६=१६७७७२१६ पद बनते हैं।
(६) प्रकीर्णतप-यह तप श्रेणि आदि निश्चित पदों की रचना बिना ही अपनी शक्ति अनुसार किया जाता है (श्रेण्यादिनियत रचनाविरहितं स्वशक्त्यपेक्षं-वही।) यह अनेक प्रकार का है।
उत्तराध्ययन (३०.११) में इत्वरिक तप के विषय में कहा है-'मणइच्छियचित्तत्थो नायवो होइ इतरिओ' इसका अर्थ श्री नेमिचन्द्राचार्य कृत उत्तराध्ययन की टीका के अनुसार इस प्रकार होता।