________________
६२२
नव पदार्थ
प्रकार की कही गई है। कनकावलि आदि तप के और भी अनेक भेद हैं। उनकी अपेक्षा से निर्जरा के भी अनेक भेद हैं।
श्री अभयदेव लिखते हैं-"अष्टविध कर्मों की अपेक्षा निर्जरा आठ प्रकार की है। द्वादश विध तपों से उत्पन्न होने के कारण निर्जरा बारह प्रकार की है। अकाम, क्षुधा, पिपासा, शीत, आतप, दंश-मशक और मल-सहन, ब्रह्मचर्य-धारण आदि अनेक विध कारण जनित होने से निर्जरा अनेक प्रकार की है।
निर्जरा की परिभाषाएँ चार प्रकार की मिलती हैं :
१. 'अणुभूअरसाणं कम्मपुग्गलाणं पसिडणं निज्जरा । सा दुविहा पराणत्ता, सकामा अकामा य । वेदना-फलानुभाव के बाद अनुभूतरस कर्म-पुद्गलों का आत्म-प्रदेशों से छूटना निर्जरा है। वह अकाम और सकाम दो प्रकार की है।
इसका मर्म है-कर्मों की वेदना अनुभूति होती है, निर्जरा नहीं होती। निर्जरा अकर्म की होती है। वेदना के बाद कर्म-परमाणुओं का कर्मत्व नष्ट हो जाता है, फिर निर्जरा होती है।
कर्म परमाणुओं का कर्मत्व नष्ट हो जाता है, फिर निर्जरा होती है, यह बात
निम्न वार्तालाप से स्पष्ट हो जायेगी : "हे भगवन् ! जो वेदना है क्या वह निर्जरा है और जो निर्जरा है वह वेदना ?" "हे गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं। कारण वेदना कर्म है और निर्जरा नो-कर्म ।"
१. नवतत्त्वसाहित्यसंग्रह : श्री देवगुप्तसूरिप्रणीत नवतत्त्वप्रकरण ११.......
अणसणभेयाइ तवा, बारसहा तेण निज्ज्रा होइ। कणगाबलिभेया वा, अहव तवोऽणेगहा भणिओ।। ठाणाङ्ग १.१६ टीका : साचाष्टविधकर्मापेक्षयाऽष्टविधाऽपि द्वादशविधतपोजन्यत्वेन द्वादशविधाऽपि अकाम
क्षुत्पिपासाशीतातपदंशमशकमलसहनब्रह्मचर्यधारणाद्यनेकविधकारणजनित ३. नवतत्त्वसाहित्यसंग्रह : देवानन्दसूरिकृत सप्ततत्त्व प्रकरण अ०६ ४. ठाणाङ्ग १.१३ टीका :
अनुभूतरसं कर्म प्रदेशेभ्यः परिशटतीति वेदनान्तरं कर्मपरिशटनरूपां निर्जरां ५. भगवती ७.३