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निर्जरा पदार्थ (ढाल : २) : टिप्पणी २
દર૧
पौद्गलिक अभिसिद्धि के लिए जो तपस्या की जाती है वह स्वार्थपूर्ति की भावना होने के कारण शुद्धप की अपेक्षा विकृति भी है। इसीलिए ऐहिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए तपस्या नहीं करनी चाहिए। किन्तु कोई कर ले तो वह तपस्या सावध होती है ऐसा नहीं है।
अभव्य आत्म-कल्याण के लिए करणी नहीं करता सिर्फ बाह्य-दृष्टि-पूजा-प्रतिष्ठा, पौद्गलिक सुख की दृष्टि से करता है। क्या ऐसी क्रिया निर्जरा नहीं ? अवश्य अकाम निर्जरा है।
निर्जरा के बिना क्षयोपशमिक भाव यानि आत्मिक उज्ज्वलता होती नहीं। अभव्य के भी आत्मिक उज्ज्वलता होती है। दूसरे निर्जरा के बिना पुण्य-बन्ध नहीं होता। पुण्य-बन्ध निर्जरा के साथ ही होता है-यह ध्रुव सिद्धान्त है। अभव्य के निर्जरा धर्म और पुण्य बन्ध दोनों होते हैं। निर्जरा के कारण वह अंशरूप में उज्ज्वल रहता है। पुण्य-बन्ध से सद्गति में जाता है। इहलोक आदि की दृष्टि से की गयी तपस्या लक्ष्य की दृष्टि से अशुद्ध है किन्तु करणी की दृष्टि से अशुद्ध नहीं है। २. निर्जरा, निर्जरा की करनी और उसकी प्रक्रिया (गा० १-४) :
ठाणाङ्ग सूत्र में कहा है-'एगा णिज्जरा' (१.१६)-निर्जरा एक है। दूसरी ओर 'बारसहा निज्ज्रा सा उ' निर्जरा बारह प्रकार की है, ऐसा माना जाता है। इसका कारण यह है कि जैसे अग्नि एक रूप होने पर भी निमित्त के भेद से काष्ठाग्नि, पाषाणग्नि-इस प्रकार पृथक-पृथक् संज्ञा को प्राप्त हो अनेक प्रकार की होती है वैसे ही कर्मपरिशाटन रूप निर्जरा तो वास्तव में एक ही है पर हेतुओं की अपेक्षा से बारह प्रकार की कही जाती है।
चूंकि तप से निकाचित कर्मों की भी निर्जरा होती है अतः उपचार से तप को निर्जरा कहते हैं। तप बारह प्रकार के हैं अतः कारण में कार्य का उपचार कर निर्जरा भी बारह
१. शान्तसुधारस : निर्जरा भावना २-३ :
काष्ठोपलादिरूपाणां निदानानां विभेदतः । वहिर्यथैकरूपोऽपि पृथग्पो विवक्ष्यते।। निर्जरापि द्वादशधा तपोभेदैस्तथोदिता।
कर्मनिर्जरणात्मा तु सेकरूपैव वस्तुतः।। ___ नवतत्त्वसाहित्यसंग्रह : श्रीदेवगुप्तसूरिप्रणीत नवतत्त्वप्रकरण ११ भाष्य ६० :
जम्हा निकाइयाणऽवि, कम्माण तवेण होइ निज्जरणं । तम्हा उवयाराओ, तवो इहं निज्जरा भणिया।।