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निर्जरा पदार्थ (ढाल : २) : टिप्पणी १
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(४) इहलोक-परलोक के लिए तप कर हुए :
मुझे स्वर्ग प्राप्त हो, मेरा अमुक लौकिक कार्य सिद्ध हो, मुझे यश-कीर्ति प्राप्त हो-इस भावना से जो क्षुधा, तृष्णा आदि का कष्ट सहन करता है अथवा तपस्या करता है उसके भी स्वामीजी ने अकाम निर्जरा की निष्पत्ति बतलायी है। स्वामीजी कहते हैं-"इहलोक-परलोक के हेतु से जो तपस्या की जाती है वह अकाम निर्जरा है। कारण यहाँ लक्ष्य कर्म-क्षय नहीं, पर लौकिक-पारलौकिक सिद्धियाँ हैं।"
दशवैकालिक सूत्र में कहा है-इस लोक के लिए तप न करे परलोक के लिए तप न करे, कीर्त्ति-वर्ण-शब्द और श्लोक के लिए तप न करे। एक निर्जरा को छोड़ कर अन्य लक्ष्य के लिए तप न करे। पाठ इस प्रकार है :
चउविहा खलु तव-समाही भवइ, तं जहा। नो इहलोगट्ठयाए तवमहिढेज्जा, नो परलोगट्ठयाए तवमहिढेज्जा, नो कित्ति-वण-सद्द-सिलोगट्ठयाए तवमहिद्वेज्जा, नन्नत्थ निज्जरट्ठयाए तवमहिद्वेज्जा चउत्थं पयं भवई। ऐसा ही पाठ आचार-समाधि के विषय में भी है।
स्वामीजी ने दशवैकालिक सूत्र के उपर्युक्त स्थल को ध्यान में रखते हुए निम्न विचार दिए हैं
विनें करें सूतर भणे रे, करें तपसा ने पालें आचार रे। इहलोक परलोक जस कारणे रे लाल, ते तो भगवंत री आग्या वार रे।। इहलोकादिक अर्थे तपसा करें रे, वले करें संलेखणा संथार रे। कह्यो दसवीकालक नवमा अधेन में रे, आग्यां लोपी ने परीया उजाड रे ।। स्वामीजी ने अन्यत्र निम्न गाथा दी हैजिण आगना विण करणी करें, ते तो दुरगतना आगेवाण। जिण आग्या सहीत करणी करें, तिण सूं पामें पद निरवांण ।
इन दोनों को मिलाने से ऐसा लगता है कि इहलोक-परलोक के अर्थ तप करने से जीव की दुर्गति होती है।
स्वामीजी ने पौषध व्रत के प्रकरण में निम्नलिखित गाथाएँ दी हैंभाव थकी राग द्वेष रहीत करे, वले चोखे चित्त उपीयोग सहीत जी। जब कर्म रुकै छे आवतां, वले निरजरा हुवे रुडी रीत जी।।
१. दशवै० ६.४.७ २. भिक्षु-ग्रन्थरत्नाकर (प्र० ख०) आचार की चौपई ढा० १७.५४-५५ ३. वही : जिनाग्या री चौपई ढा० २.२६