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निर्जरा पदार्थ (ढाल : २)
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३०. इनकी असातना से दूर रह इनका विनय करना, भक्ति कर
बहुमान देना तथा गुणगान कर उनकी महिमा बढ़ाना-यह दर्शन विनय की शुद्ध रीति है।
३१. उपर्युक्त पन्द्रह बोलों में पाँच ज्ञान का पुनरुल्लेख हुआ
है। वे चारित्र-सहित ज्ञान मालूम देते हैं। ये जो यहाँ पाँच ज्ञान कहे हैं, उनके विनय की रीति भिन्न है।
३२. सामायिक आदि पाँचों चारित्रशीलों का यथायोग्य विनय
करना, उनकी हर्षपूर्वक सेवा-भक्ति करना और उनसे निर्दोष संभोग करना-ज्ञान विनय है।
३३. सावध मन, जो बारह प्रकार का है, उसे दूर करना और
उतने ही प्रकार का जो निरवद्य मन है उसकी प्रवृत्ति करना मन-विनय है। इससे उत्तम निर्जरा होती है।
३४. इसी तरह सावध भाषा बारह प्रकार की है। सावध को दूर
कर निर्दोष-निरवद्य भाषा बोलना वचन-विनय है।
३५.
अयतनापूर्वक काय-प्रवृत्ति के ७ भेद हैं । इनको दूर कर काय की यतनापूर्वक प्रवृत्ति करने से कर्मों का क्षय होता है। यतनापूर्वक काय-प्रवृत्ति के भी सात भेद हैं, यह काय-विनय तप है।
३६-३७.लोक व्यवहार (लोकोप्रचार) विनय के सात भेद हैं-(१)
गुरु के समीप रहना, (२) गुरु की आज्ञा अनुसार चलना, (३) ज्ञानादि के लिए उनका कार्य करना, (४) ज्ञान दिया हो उनकी वैयावृत्त्य करना, (५) आर्त-गवेषणा करना, (६) अवसर का जानकार होना और (७) गुरु के सब कार्य अच्छी तरह करना।