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________________ निर्जरा पदार्थ (ढाल : २) ६०१ ३०. इनकी असातना से दूर रह इनका विनय करना, भक्ति कर बहुमान देना तथा गुणगान कर उनकी महिमा बढ़ाना-यह दर्शन विनय की शुद्ध रीति है। ३१. उपर्युक्त पन्द्रह बोलों में पाँच ज्ञान का पुनरुल्लेख हुआ है। वे चारित्र-सहित ज्ञान मालूम देते हैं। ये जो यहाँ पाँच ज्ञान कहे हैं, उनके विनय की रीति भिन्न है। ३२. सामायिक आदि पाँचों चारित्रशीलों का यथायोग्य विनय करना, उनकी हर्षपूर्वक सेवा-भक्ति करना और उनसे निर्दोष संभोग करना-ज्ञान विनय है। ३३. सावध मन, जो बारह प्रकार का है, उसे दूर करना और उतने ही प्रकार का जो निरवद्य मन है उसकी प्रवृत्ति करना मन-विनय है। इससे उत्तम निर्जरा होती है। ३४. इसी तरह सावध भाषा बारह प्रकार की है। सावध को दूर कर निर्दोष-निरवद्य भाषा बोलना वचन-विनय है। ३५. अयतनापूर्वक काय-प्रवृत्ति के ७ भेद हैं । इनको दूर कर काय की यतनापूर्वक प्रवृत्ति करने से कर्मों का क्षय होता है। यतनापूर्वक काय-प्रवृत्ति के भी सात भेद हैं, यह काय-विनय तप है। ३६-३७.लोक व्यवहार (लोकोप्रचार) विनय के सात भेद हैं-(१) गुरु के समीप रहना, (२) गुरु की आज्ञा अनुसार चलना, (३) ज्ञानादि के लिए उनका कार्य करना, (४) ज्ञान दिया हो उनकी वैयावृत्त्य करना, (५) आर्त-गवेषणा करना, (६) अवसर का जानकार होना और (७) गुरु के सब कार्य अच्छी तरह करना।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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