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निर्जरा पदार्थ (ढाल : २)
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३८.
वैयावृत्त्य
वैयावृत्त्य तीसरा आभ्यन्तर तप है। यह तप दस प्रकार का है। ये दसों ही वैयावृत्त्य साधु की होती हैं। इनसे कर्म-कोटि का क्षय होता है और जीव मोक्ष के समीप होता है।
स्वाध्याय
३६. स्वाध्याय तप चौथा आभ्यन्तर तप है। स्वाध्याय तप पाँच
प्रकार का है। शुद्ध अर्थ और पाठ का भाव सहित स्वाध्याय करने से कर्म-कोटि का नाश होता है |
४०.
ध्यान
आर्त और रौद्र ध्यान का निवारण कर धर्म और शुक्ल ध्यान का ध्याना-ध्यान नामक पाँचवां आभ्यन्तर तप है। इस प्रकार ध्यान ध्याते-ध्याते उत्कृष्ट शुक्ल और धर्मध्यान के ध्याने से केवलज्ञान प्राप्त होता है |
व्युत्सर्ग (गा० ४१-४५)
४१. व्युत्सर्ग तप छठा आभ्यन्तर तप है। व्युत्सर्ग का अर्थ
है-त्यागना । यह द्रव्य और भाव-इस तरह दो प्रकार का होता है। द्रव्य व्युत्सर्ग चार प्रकार का होता है। उसका
विवरण सब कोई सुनें। ४२. शरीर को छोड़ना शरीर-व्युत्सर्ग है, गण को छोड़ना
गण-व्युत्सर्ग है, उपधि को छोड़ना उपधि-व्युत्सर्ग है और
भात-पानी को छोड़ना भात-पानी-व्युत्सर्ग। ४३. भाव व्युत्सर्ग के तीन भेद हैं । (१) कषाय-व्युत्सर्ग अर्थात्
क्रोध, मान, माया और लोभ-इन चारों कषायों का त्याग
करना। इन चारों के त्याग से निर्जरा धर्म होता है। ४४. (२) संसार-व्युत्सर्ग अर्थात् संसार का त्याग करना। इसके
चार प्रकार हैं-नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव-इन
चार गतियों की अपेक्षा चार संसार का त्याग। ४५. (३) कर्म-व्युत्सर्ग-आठों कर्मों को त्यजना। इनकों ज्यों-ज्यों
जीव छोड़ता है त्यों-त्यों हल्का होता जाता है। ऐसी करनी से निर्जरां धर्म होता है |