________________
५८४
नव पदार्थ
३. अन्तराय कर्म की पाँच प्रकृतियाँ हैं-(१) दानान्तराय कर्म (२) लाभान्तराय कर्म (३) भोगान्तराय कर्म (४) उपभोगान्तराय कर्म और (५) वीर्यान्तराय कर्म!
अन्तराय कर्म के क्षयोपशम से दान लब्धि उत्पन्न होती है जिससे जीव दान देता है।
अन्तराय कर्म के क्षयोपशम से समुच्चयरूप में पाँच लब्धियाँ और तीन वीर्य उत्पन्न होते हैं।
दानान्तराय कर्म के क्षयोपशम से दान लब्धि उत्पन्न होती है जिससे जीव दान देता है।
लाभान्तराय कर्म' के क्षयोपशम से लाभ लब्धि प्रकट होती है जिससे जीव वस्तुओं को प्राप्त करता है। ___ भोगान्तराय कर्म के क्षयोपशम से भोग लब्धि उत्पन्न होती है जिससे जीव वस्तुओं का भोग करता है।
उपभोगान्तराय कर्म के क्षयोपशम से उपभोग लब्धि उत्पन्न होती है जिससे जीव वस्तुओं का बार-बार भोग करता है।
वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से वीर्य लब्धि उत्पन्न होती है जिससे शक्ति उत्पन्न होती है।
अन्तराय कर्म की पाँचों प्रकृतियों का सदा देश क्षयोपशम रहता है जिससे जीव में पाँचों लब्धियाँ कुछ-न-कुछ मात्रा में रहती ही हैं।
अन्तराय कर्म की पाँचों प्रकृतियों का सदा देश क्षयोपशम रहने से पाँचों लब्धियों का निरन्तर अस्तित्व रहता है और जीव अंशमात्र उज्ज्वल रहता है।
जीव जब लब्धियों के अस्तित्व के कारण दान देता, लाभ प्राप्त करता, भोगोपभोगों का सेवन करता है तब योग-प्रवृत्ति होती है।
अन्तराय कर्म के न्यूनाधिक क्षयोपशम के अनुसार जीव को भोगोपभोगों की प्राप्ति होती है। साधु का खाना-पीना आदि भोगोपभोग निरवद्य योग हैं और गृहस्थ का भोगोपभोग सावध योग।
ऊपर कहा जा चुका है कि वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम भी निरन्तर रहता है। इसके परिणाम स्वरूप वीर्य लब्धि भी किंचित् मात्रा में हर समय मौजूद रहती है। जीव के हर समय कुछ-न-कुछ बालवीर्य रहता ही है।