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: ७ : निर्जरा पदार्थ (ढाल १)
दोहा १. निर्जरा सातवाँ पदार्थ है। यह अनुपम उज्ज्वल वस्तु है
और जीव चेतन का स्वाभाविक गुण है। निर्जरा का विवेचन ध्यान लगा कर सुनो।
निर्जरा सातवाँ पदार्थ है।
ढाल : १ १. अनादिकाल से जीव के आठ कर्मों का बंध है। इन निर्जरा कैसी होती कर्मों की उत्पत्ति के हेतु आश्रव-द्वार हैं। बंधे हुए कर्म
हैं (गा० १-८) उदय में आते हैं और फिर झड़ जाते हैं। कर्म इस तरह झड़ते और निरन्तर उत्पन्न होते रहते हैं।
२. जीव द्रव्य के असंख्यात प्रदेश होते हैं। प्रत्येक प्रदेश
कर्म आने का द्वार है। प्रत्येक प्रदेश से कर्मों का प्रवेश होता है।
३. आत्मा के एक-एक प्रदेश के प्रतिसमय अनन्त कर्म
लगते हैं। इस प्रकार एक-एक प्रकार के कर्म के अनन्त-अनन्त प्रदेश, आत्मा के एक-एक प्रदेश के लगते हैं।
४. ये कर्म उदय में आकर जीव के प्रदेशों से प्रतिसमय
अनन्त संख्या में झड़ जाते हैं । परन्तु भरे घाव की तरह कर्मों का अन्त नहीं आता। कर्मों के अन्त करने के उपाय को न जानने से उनका अन्त नहीं आ सकता।