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निर्जरा पदार्थ (ढाल : १) : टिप्पणी १
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इन सब आगम-प्रमाणों से यह स्वयंसिद्ध है कि भगवान महावीर ने निर्जरा को एक स्वतंत्र पदार्थ माना है।
आगम में कहा है-“बद्ध कर्मों के संवर और क्षपण में सदा यत्नशील हो'।"-इसका अर्थ है वह नये कर्मों को न आने दे और पुराने कर्मों का नाश करे।
आगमों में कहा है : “ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप-ये चार मुक्ति के मार्ग हैं।" "इसी मार्ग को प्राप्त कर जीव सुगति को प्राप्त करता है।"
षट् द्रव्य को नव पदार्थों के गुण और पर्याय के यथार्थ ज्ञान को सम्यक्ज्ञान कहा जाता है। नव तथ्यभावों की स्वभाव से या उपदेश से भाव पूर्वक श्रद्धा करना सम्यक् दर्शन अथवा सम्यक्त्व है | चारित्र कर्मास्रव को रोकता है। तप बंधे हुए कर्मों को झाड़ता
भगवान ने कहा है : “संयम (चारित्र) और तप से पूर्व कर्मों का क्षय कर जीव समस्त दुःखों से रहित हो मोक्ष को प्राप्त करता है।"
चारित्र संवर का हेतु है। तप निर्जरा का हेतु है। ___जीव अनादिकालीन कर्म-बंध से संसार में भ्रमण कर रहा है। जब तक जीव कर्मों से मुक्त नहीं होता तब तक निर्वाण प्राप्त नहीं होता-“नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं" (उत्त० २८.३०)। जो संयम और तप से युक्त नहीं उस अगुणी की कर्मों से मुक्ति नहीं होती-“अगुणिस्स नत्थि मोक्खो" (उत्त० २८.३०)।
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१. उत्त० ३३.२५ :
तम्हा एएसि कम्माणं अणुभागा वियाणिया।
एएसि संवरे चेव खवणे य जए बुहो।। २. वही २८.१ ३. वही २८.२ ४. वही २८.५-१४, ३५ ५. वही २८.१५, ३५ ६. वही २८.३५
नाणेण जाणई भावे दंसणेण य सद्दहे। चरित्तेण निगिण्हाइ तवेण परिसुज्झइ ।। वही २८.३६ : खवेत्ता पुव्वकम्माइं संजमेण तवेण य। सव्वदुक्खपहीणट्ठा पक्कमंति महेसिणो।।