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(३) विभंगज्ञान : विभंगज्ञानी विभंगज्ञान के विषयभूत द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को जानता-देखता है'।
नव पदार्थ
३. ज्ञानावरणीय कर्म पाँच प्रकार का है - मतिज्ञानावरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय, मनःपर्याय ज्ञानावरणीय और केवलज्ञानावरणीय । इनके स्वरूप का विस्तृत विवेचन पहले किया जा चुका है (देखिए पृ० ३०४) ।
ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से समुच्चयरूप में निम्न आठ बोल उत्पन्न होते
हैं ।
(१) केवलज्ञान को छोड़कर बाकी चार ज्ञान |
(२) तीनों अज्ञान
(३) आचाराङ्गादि १२ अङ्गों का अध्ययन और उत्कृष्ट में १४ पूर्वों का अभ्यास भिन्न-भिन्न ज्ञानावरणीय कर्मों के क्षयोपशम का परिणाम इस प्रकार होता
है :
(१) मतिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से सम्यक्त्वी के मतिज्ञान उत्पन्न होता है और मिथ्यात्वी के मतिअज्ञान ।
(२) श्रुतज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से सम्यक्त्वी के श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है और मिथ्यात्वी के श्रुतअज्ञान । सम्यक्त्वी उत्कृष्ट १४ पूर्व का अभ्यास करता है और मिथ्यात्वी देशन्यून १० पूर्व तक ।
(३) अवधिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से सम्यक्त्वी के अवधिज्ञान उत्पन्न होता है और मिथ्यात्वी के विभंगज्ञान ।
(४) मनःपर्यव ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से ऋद्धिप्राप्त अप्रमत्त साधु को मनः पर्यवज्ञान उत्पन्न होता है और मिथ्यात्वी को यह ज्ञान उत्पन्न नहीं होता |
(५) केवलज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं होता । ज्ञानावरणीय कर्म के सम्पूर्ण क्षय से केवलज्ञान उत्पन्न होता है ।
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भगवती ८.२ :
(क) दव्वओ णं मइअन्नाणी मइअन्नाणपरिगयाइं दव्वाइं जाणइ पासइ, एवं जाव भावओ मइअन्नाणी मइअन्नाणपरिगएं भावे जाणइ पासइ ।
(ख) दव्वओ णं सुयअन्नाणी सुयअन्नाणपरिगयाइं दव्वाइं आघवेति, पन्नवेइ, परुवेइ । (ग) दव्वओ णं विभंगनाणी विभंगनाणपरिगया इं दव्वाइं जाणइ पासइ एवं जाव भावओ णं विभंगनाणी विभंगनाणपरिगए भावे जाणइ पासइ ।