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नव पदार्थ
के स्वभाव का विस्तृत वर्णन भी किया जा चुका है। (देखिए पृ० ३०३-३२७ टि० ४-८) । अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त श्रद्धा और चारित्र तथा अनन्त वीर्य- ये जीव के स्वाभाविक गुण हैं । ज्ञानावरणीय कर्म अनन्त ज्ञान को प्रकट नहीं होने देता- उसे आवृत कर रखता है। दर्शनावरणीय कर्म अनन्त दर्शन-शक्ति को आवृत्त कर रखता है। मोहनीय कर्म जीव की अनन्त श्रद्धा और चारित्र को प्रकट नहीं होने देता- उसे मोह-विह्वल रखता है । अन्तराय कर्म अनन्त वीर्य के प्रकट होने में बाधक होता है । इस तरह ज्ञानावरणीय आदि चारों कर्म जीव के स्वाभाविक गुणों को प्रकट नहीं होने देते । घन - बादलों की तरह वे उनको आच्छादित कर रखते हैं इससे वे घनघाती कहलाते हैं।
इन घनघाती कर्मों का उदय चाहे कितना ही प्रबल क्यों न हो, वह जीव के ज्ञान दर्शन, सम्यक्त्व चारित्र और वीर्य गुणों को सम्पूर्णतः आवृत्त नहीं कर सकता। ये शक्तयाँ कुछ-न-कुछ मात्रा में सदा अनावृत्त रहती हैं। ज्ञानावरणीय आदि घाति कर्म- ज्ञानादि गुणों की घात करते हैं पर उनके अस्तित्व को सर्वथा नहीं मिटा सकते। यदि मिटा सकते तो जीव अजीव हो जाता । ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का सदा काल कुछ-न-कुछ क्षयोपशम रहता ही है जिससे ज्ञानादि गुण जीव में न्यूनाधिक मात्रा में हमेशा प्रकट रहते हैं। कहा है - "सब जीवों के अक्षर का अनन्तवाँ भाग नित्य प्रकट रहता है यदि वह भी आवृत्त होता तो जीव अजीवत्व को प्राप्त होता । अत्यन्त घोर बादलों द्वारा सूर्य और चन्द्रमा की किरणें तथा रश्मियों का आच्छादन होने पर भी उनका एकान्त तिरोभाव नहीं हो पाता। अगर ऐसा हो तो फिर रात और दिन का अन्तर ही न रहे । प्रबल मिथ्यात्व के उदय के समय भी दृष्टि किंचित् शुद्ध रहती है। इसी से मिथ्यादृष्टि के भी गुणस्थान संभव होता है।"
१. कर्मग्रन्थ २ टीका :
'सव्व जीवाणं पि अणं अक्खरस्स अनंतभागो निच्चुग्घाडिओ चिट्ठइ, जइ पुण सोवि आवरिज्जा, तेणं जीवो अजीवत्तणं पाविज्जा', इत्यादि । तथाहि समुन्नतातिबहलजीमूतपटलेन, दिनकररजनीकरकरनिकरतिरस्कारेऽपिनैकान्तेन तत्प्रभानाशः संपद्यते, प्रतिपाणिप्रसिद्धदिनरजनीविभागाभावप्रसंगङ्गत् । एवमिहापि प्रबलमिथ्यात्वोदये काचिदविपर्यस्तापि दृष्टिव तदपेक्षया मिथ्यादृष्टेरपि गुणस्थानसंभवः ।