________________
निर्जरा पदार्थ (ढाल : १)
५.
६.
७.
८.
१०.
आठ कर्मों में चार घनघाती कर्म हैं। इन कर्मों से चेतन जीव के स्वाभाविक गुणों की घात होती है; परन्तु इन कर्मों का भी सब समय कुछ-न-कुछ क्षयोपशम रहता है। जिससे जीव कुछ अंश में उज्ज्वल रहता है।
११.
घनघाती कर्मों का कुछ क्षयोपशम होने से कुछ उदय बाकी रहता है। जीव कर्मों के क्षयोपशम से उज्ज्वल होता है । पर वह कर्मों के उदय से जरा भी उज्ज्वल नहीं होता ।
कर्मों के कुछ क्षय और कुछ उपशम से क्षयोपशम भाव होता है । यह क्षयोपशम भाव उज्ज्वल भाव है और चेतन जीव का गुण अथवा पर्याय है।
६.
जीव के देशरूप उज्ज्वल होने को ही भगवान ने निर्जरा कहा है । सर्वरूप उज्ज्वल होना मोक्ष है और यह मोक्ष ही परम निधान - सम्पूर्ण कर्मक्षय का स्थान है ।
जैसे-जैसे कर्मों का क्षयोपशम अधिक होता है वैसे-वैसे जीव अधिकाधिक आवरणरहित - उज्ज्वल होता जाता है । इस प्रकार जीव का उज्ज्वल होना निर्जरा है । यह निर्जरा भाव - जीव है ।
ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम होने से चार ज्ञान और तीन अज्ञान उत्पन्न होते हैं तथा आचाराङ्ग आदि चौदह पूर्व का अभ्यास होता है।
ज्ञानावरणीय कर्म की पाँच प्रकृतियों में से दो का सदा क्षयोपशम रहता है, जिससे दो अज्ञान सदा रहते हैं और जीव सदा अंशमात्र उज्ज्वल रहता है।
निर्जरा की परिभाषा
५५३
निर्जरा और मोक्ष में अन्तर
ज्ञानावरणीय कर्मों के क्षयोपशम से निष्पन्न भाव ( गा० १०-१८)