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निर्जरा पदार्थ (दाल : १)
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२०. दर्शनावरणीय कर्म की नौ प्रकृतियों में से एक प्रकृति
सदा क्षयोपशमरूप रहती है। उससे अचक्षु दर्शन और स्पर्श इन्द्रिय सदा रहती हैं। यह क्षयोपशम भाव-जीव है।
२१. चक्षुदर्शनावरणीय के क्षयोपशम होने से चक्षु दर्शन और
चक्षु इन्द्रिय होता है। कर्म दूर होने से जीव उज्ज्वल होता है, जिससे देखने में सक्षम होता है।
२२. अचक्षुदर्शनावरणीय के विशेष क्षयोपशम से चक्षु को
छोड़ कर बाकी चार क्षयोपशम इन्द्रियाँ प्राप्त होती हैं।
२३. अवधिदर्शनावरणीय के क्षयोपशम होने से विशेष अवधि
दर्शन उत्पन्न होता है। अवधि-दर्शन उत्पन्न होने से जीव उत्कृष्ट में सर्व रूपी पुद्गल को देखने लगता है।
अनाकार उपयोग
२४. पाँच इन्द्रियाँ और तीनों दर्शन दर्शनावरणीय के क्षयोपशम
से होते हैं। ये अनाकार उपयोग हैं। ये केवलदर्शन के नमूने हैं। इसमें जरा भी शंका मत करो।
२५. मोहनीयकर्म के क्षयोपशम होने से आठ विशेष बोल
उत्पन्न होते हैं-चार चारित्र, देश-विरति और उज्ज्वल तीन दृष्टि।
मोहनीयकर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न भाव (गा० २५-४०)
२६. चारित्रमोहनीय कर्म की पचीस प्रकृतियों में से कई सदा
क्षयोपशम रूप में रहती हैं, इससे जीव अंशतः उज्ज्वल रहता है। और इस उज्ज्वलता से शुभ अध्यवसाय का
वर्तन होता है। २७. कभी क्षयोपशम अधिक के होता है तब उससे जीव के
अधिक गुण उत्पन्न होते हैं। क्षमा, दया, संतोषादि गुणों की वृद्धि होती है और शुभ लेश्याएँ वर्तती हैं।