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जैसे जल को स्वच्छ करने की प्रक्रिया में कतक (फिटकरी) आदि द्रव्यों के सम्बन्ध से जल में पंक नीचे बैठ जाता है और जल गँदला नहीं रहता उसी प्रकार जीव के बंधे हुए कर्म भी निमित्त पाकर उपशमित हो जाते हैं । कर्म की स्वशक्ति का किसी कारण से प्रकट न होना उपशम कहलाता है' । कर्मों के उपशम से जीव में जो भाव उत्पन्न होते हैं. उन्हें औपशमिक भाव कहते हैं । औपशमिक चारित्र समस्त मोहनीयकर्म के उपशम से उत्पन्न होता है । अतः अपने इस निमित्त के अनुसार औपशमिक चारित्र कहलाता है ।
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यथाख्यात चारित्र औपशमिक चारित्र है ।
१०. यथाख्यात चारित्र ( गा० २४ ) :
सपंक जल को कतक आदि से स्वच्छ करने की प्रक्रिया में एक स्थिति ऐसी आती है जब सारा पंक नीचे बैठ जाता है । अब यदि निर्मल जल को दूसरे बर्तन में डाल लिया जाय तो उसमें पंक की सत्ता भी नहीं पाई जाती। इसी प्रकार जब जीव बंधे हुए कर्मों का सर्वथा क्षय कर देता है तब क्षायिक अवस्था उत्पन्न होती है । क्षायिक अवस्था से जीव में जो भाव उत्पन्न होते हैं, उन्हें क्षायिकभाव कहते हैं ।
जो यथाख्यात चारित्र चारित्र - मोहनीयकर्म के सर्वथा क्षय से उत्पन्न होता है, वह क्षायिक चारित्र कहलाता है ।
औपशमिक और क्षायिक चारित्र की निर्मलता में अन्तर नहीं होता पर औपशमिक चारित्र में मोहनीयकर्म की सत्ता रहती है; भले ही उसका प्रभाव न रहे । क्षायिक चारित्र
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नव पदार्थ
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तत्त्वा० २.१ सर्वार्थसिद्धि :
आत्मनि कर्मणः स्वशक्तेः कारणवशादनुद्भूतिरुपशमः । यथा कतकादिद्रव्यसम्बन्धादम्भसि
पङ्कस्य उपशमः ।
तत्त्वा० २.३ सर्वार्थसिद्धि :
कृत्स्नस्य मोहनीयस्योपशमादौपशमिकं चारित्रम्
तत्त्वा० २.१ सर्वार्थसिद्धि :
क्षय आत्यन्तिकी निवृत्तिः । यथा तस्मिन्नेवाम्भसि शुचिभाजनान्तरसंक्रान्ते पङ्कस्यात्यन्ताभावः
झीणी चर्चा १६.१३ :
मोहणी क्षय थी क्षायक सम्यक्त लहै रे, शुद्ध सरधा ते निरवद्य उज्वल लेख रे । क्षायक चारित्र दूजो गुण वली रे, करणी लेखै निरवद्य संपेख रे ।।