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तीसरा स्थान जो कुछ पापों से निवृत्त और कुछ पापों से अनिवृत्त रूप है वह आरंभ-अनारम्भ-स्थान है। वह (विरत्ति की अपेक्षा) आर्य यावत् सर्व दुःख के नाश का मार्ग है और एकांत सम्यक् और उत्तम है' ।
(२) प्रत्याख्यानी, अप्रत्यख्याती, और प्रत्याख्यानी - अप्रत्याख्यानी :
एक बार गौतम ने पूछा - "भगवन् ! जीव प्रत्याख्यानी होते हैं, अप्रत्याख्यानी होते हैं अथवा प्रत्याख्यानी अप्रत्याख्यानी होते हैं ?" भगवान ने उत्तर दिया" गौतम ! जीव प्रत्याख्यानी भी होते हैं, अप्रत्याख्यानी भी होते हैं और प्रत्याख्यानीअप्रत्याख्यानी भी।"
नव पदार्थ
जो अधर्म पक्ष में बताए हुए पापों का यावज्जीवन के लिए तीन करण और तीन योग से त्याग करता है वह प्रत्याख्यानी कहलाता है। जो उनका त्याग नहीं करता वह अप्रत्याख्यानी कहलाता है। जो कुछ का त्याग करता है और कुछ का नहीं करता वह प्रत्याख्यानी-अप्रत्याख्यानी कहलाता है ।
(३) संयती, असंयती और संयतासंयती :
एक बार गौतम ने पूछा - "भगवन् ! जीव संयत होते हैं, असंयत होते हैं अथवा संयतासंयत होते हैं ?" भगवान ने उत्तर दिया- "जीव संयत होते हैं, असंयत होते हैं और संयतासंयत भी होते हैं ।"
जो विरत हैं वे संयत है, जो अविरत हैं वे असंयत हैं और जो विरताविरत हैं वे संयतासंयत हैं ।
१. सुयगड २.२
२. भगवती ७.२ :
जीवा णं भंते! किं पच्चक्खाणी, अपच्चक्खाणी, पच्चक्खाणापच्चक्खाणी ?
गोयमा ! जीवा पच्चाक्खाणी वि तिन्नि वि
३. भगवती ७.२ :
४.
(क) भगवती ७.२ :
जीवा णं भंते! संजया, असंजया, संजयासंजया ? गोयमा ! जीवा संजया वि
असंजया वि, संजयासंजया वि
(ख) प्रज्ञापना : लेश्यापद १७.४