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भगवान महावीर ने उत्तर दिया- “गौतम ! वे अवर्ण, अगन्ध, अरस और अस्पर्श वाले
हैं ।
इस वार्तालाप में उत्थान, कर्म आदि को स्पष्टतः अरूपी कहा है। उत्थान, कर्म आदि का व्यापार योग आस्रव है। इस तरह योग आस्रव रूपी ठहरता है।
२२. संयती, असंयती, संयतासंयती आदि त्रिक ( गा० ५२-५५ ) : आगमों में निम्न त्रिक अनेक स्थल और प्रसंगों में मिलते हैं : (१) विरत, अविरत और विरताविरत ।
(२) प्रत्याख्यानी, अप्रत्याख्यानी और प्रत्याख्यानी अप्रत्याख्यानी । (३) संयती, असंयती और संयतासंयती ।
(४) पंण्डित, बाल और बालपण्डित ।
(५) जाग्रत, सुप्त और सुप्तजाग्रत ।
(६) संवृत्त, असंवृत्त और संवृत्तासंवृत्त ।
(७) धर्मी, अधर्मी और धर्माधर्मी ।
(८) धर्मस्थित, अधर्मस्थित और धर्माधर्मस्थित ।
(९) धर्मव्यवसायी, अधर्मव्यवसायी और धर्माधर्मव्यवसायी । नीचे इन में से प्रत्येक पर कुछ प्रकाश डाला जाता है।
नव पदार्थ
(२) विरति, अविरति और विरताविर
१.
:
भगवान महावीर ने तीन तरह के मनुष्य बतलाये हैं :
(क) एक प्रकार के मनुष्य महाइच्छा, महा आरम्भ और महा परिग्रह वाले होते हैं। वे अधार्मिक, अधर्मानुग, अधर्मिष्ठ, अधर्म की ही चर्चा करने वाले, अधर्म को ही देखने वाले और अधर्म में ही आसक्त होते हैं । वे अधर्ममय स्वभाव और आचरणवाले और I अधर्म से ही आजीविका करने वाले होते हैं
वे हमेशा कहते रहते हैं-मारो, काटो और भेदन करो। उनके हाथ लहू से रंगे रहते हैं। वे चण्ड, रुद्र और क्षुद्र होते हैं। वे पाप में साहसिक होते हैं। वञ्चन, माया, कूटकपट में लगे रहते हैं तथा दुःशील, दुर्व्रत और असाधु होते हैं ।
भगवती : १२.५
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अह भंते ! १ उट्ठाणे २ कम्मे, ३ बले, ४ वीरीए ५ पुरिसक्कारपरक्कमे - एस णं कतिवन्ने ? तं चेव जाव- अफासे पन्नत्ते ।