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संवर पदार्थ (टाल : १)
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१८. सामायिक आदि पाँचों चारित्र सर्व विरति संवर हैं। पुलाक
आदि छहों निग्रंथ भी संवर हैं।
सामायिक आदि पाँच चारित्र सर्व विरति संवर हैं
१६. · चारित्रावरणीय कर्म के क्षयोपशम से जीव को वैराग्य की
उत्पत्ति होती है जिससे काम-भोगों से विरक्त होकर वह सर्व सावद्य प्रवृत्तियों का त्याग कर देता है। सर्व सावध योग का सर्वथा त्याग कर देने से पूर्व विरति संवर होता है। सर्व सावध के त्याग के बाद अविरति का पाप सर्वथा नहीं लगता। यह गुणों की खानरूप सकल चारित्र है।
२१. प्रथम सामायिक चारित्र को अंगीकार करने पर भी मोह
कर्म उदय में रहता है। उस कर्मोदय से सावध कर्तव्य-क्रियाएँ होती हैं जिससे पापास्रव होता है।
२२. शुभ ध्यान और शुभ लेश्या से मोह कर्म का उदय कुछ
घटता है तब मोहकर्म के उदय से होनेवाले सावध व्यापार भी कम होते हैं। इससे पाप कर्म भी हल्के (कम) लगते
है।
२३. मोहकर्म के सर्वथा उपशम हो जाने से उपशम चारित्र
होता है जिससे जीव-प्रदेश शीतल (अचंचल) और निर्मल
हो जाते हैं और जीव के पाप कर्म नहीं लगते । २४. मोहनीयकर्म के सर्वथा क्षय होने से क्षायक यथाख्यात
चारित्र की प्राप्ति होती है। इससे जीव के प्रदेश शीतल होते हैं, उनमें निर्मलता आती है जिससे जरा भी पापाजव
नहीं होता। २५. सामायिक चारित्र उदीर कर-इच्छापूर्वक ग्रहण किया
जाता है और इसमें मनुष्य सर्व सावद्य योगों का प्रत्याख्यान करता है। उपशम चारित्र मोहकर्म के उपशम से ग्यारहवें गुणस्थान में प्राप्त होता है।