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संवर पदार्थ (ढाल : १)
२६. क्षायक चारित्र मोहकर्म के सम्पूर्ण क्षय करने से होता है,
प्रत्याख्यान से नहीं। शुक्ल ध्यान के ध्याने से बारहवें, तेरहवें तथा चोदहवें गुणस्थान में यह उत्पन्न होता है।
२७. चारित्रावरणीय कर्म के क्षयोपशम से क्षयोपशम चारित्र,
उपशम से उपशमचारित्र और क्षय से सर्व प्रधान क्षायिक चारित्र होता है।
२८. जिन भगवान ने चारित्र को जीव का स्वाभाविक गुण कहा
है। चारित्र गुण गुणी जीव से अलग नहीं होता। मोहम के अलग होने से चारित्र गुण प्रकट होता है, जिससे जीव मुनित्व को धारण करता है।
२६. चारित्रावरणीय मोहनीयकर्म (का एक भेद) है। इसके
अनन्त प्रदेश होते हैं। इसके उदय से जीव के स्वाभाविक गुण विकृत हैं, जिससे जीव को अत्यन्त क्लेश है।
३०. मोहनीयकर्म के अनन्त प्रदेशों के अलग होने पर आत्मा
अनन्तगुण उज्ज्वल होती है। इस उज्ज्वलता के आने पर जीव सावद्य योगों का सर्वथा प्रत्याख्यान करता है। यही
सर्व विरति संवर है। ३१. संयम से जीव निर्मल (उज्ज्वल) हुआ वह निर्जरा हुई और
विरति संवर हुआ जिससे पाप कर्मों का आना रुका। संवर से नये कर्म नहीं लगते। इस प्रकार चारित्र धर्म संवर निर्जरात्मक है।
३२.
जैसे-जैसे मोहनीयकर्म पतला (क्षीण) होता जाता है वैसे-वैसे जीव उत्तरोत्तर निर्मल होता जाता है। इस प्रकार क्षीण होते-होते जब मोहनीयकर्म सर्वथा क्षय हो जाता है तब यथाख्यात चारित्र प्रकट होता है।